Pages

Monday, January 28, 2008

एक उम्दा ग़ज़ल, दो दिलकश आवाजें....

दोस्तो,
नमस्कार!

"प्यार सच्चा हो तो राहें भी निकल आती हैं,
बिजलियाँ अर्श से ख़ुद रास्ता दिखलाती हैं।"

जी हाँ, आपसे जुड़ने की जब मैं दिल में ख्वाहिश कर लूँ तो किसी न किसी तरह आपके लिए हाजिर हो ही जाऊंगा और कुछ अच्छा ही लेकर आऊंगा इतना तो विश्वास है।

आजकल की मेरी हरेक पोस्ट में मैं कोशिश कर रहा हूँ कि मैं आपको अपनी पसंदीदा उन गीतों , गजलों को सुनवाऊँ जिन्हें जब मैंने पहली बार सुना, जाना, पहचाना था तब उन गीतों ने मुझे किस क़दर उद्वेलित किया था.

मेरी पिछली पोस्ट जो मशहूर क़व्वाल अजीज नाजां की बेमिसाल क़व्वाली " झूम बराबर झूम शराबी..." पर आधारित थी, या जगजीत सिंह जी की बीमारी के वक्त लिखी गयी मेरी पोस्ट सबके प्रिय जगजीत ... , या फिर नवरात्रों के समय लिखी गयी मेरी पोस्ट्स में मेरे पसंदीदा भजन वाली पोस्ट आराधना शक्ति की.....; आपने देखा होगा कि मैं अपनी जिन्दगी के उन पहले संगीतमय पलों को आपके साथ बाँटने की कोशिश की है।

आज मैं बात कर रहा हूँ उस ग़ज़ल की जिसका खुमार मुझ पर इस क़दर तारी हुआ था कि अब तक उस ग़ज़ल को सुनने के लिए मैं आकाशवाणी पटना की तरफ़ एक बार तो मैं जरूर कान लगा देता हूँ। उस ग़ज़ल के गुलुकार न तो हर दिल अज़ीज़ जगजीत जी हैं, ना ही पंकज उधास साहब और ना ही गुलाम अली साहब.

बात तब की है जब मैं आठवीं या नवीं में रहा होउंगा और रेडियो हमारा हमराह हुआ करता था, कमसे कम सुबह के पाँच बजे से 9:30 तक और शाम 5:30 से रात के 11 बजे तक। ये बात अलग थी कि रेडियो को कुछ समय के लिए हमें दूर से ही सुनना पड़ता था यूँ कहें कि रेडियो पापा के पास होता दूसरे कमरे में और हम तीनों भाई-बहन पढ़ते दूसरे कमरे में।

सवेरे 8:30 में प्रादेशिक समाचार आकाशवाणी रांची से उसके बाद आकाशवाणी भागलपुर से शास्त्रीय गायन। उसी समय एक दिन मैंने रेडियो का कान उमेठा और पहुँच गए आकाशवाणी पटना के उर्दू प्रोग्राम में. सोचा उफ़! यहाँ भी चैन नहीं. तभी अनाउंसर ने कहा - आइये सुनते हैं ग़ज़ल , आवाजें हैं अहमद हुसैन और मोह्हमद हुसैन की. मैंने फिर सोचा ये कौन नए साहब हो गए. उस समय मैं तो उन्ही तीनों का नाम जानता था,उसके अलावा कौन.

खैर, ग़ज़ल शुरू हुई। और जनाब! क्या खूब शुरू हुई. क्या खूब शायरी उस पर क्या नफासत भरी उम्दा आवाज़, दिल का गोशा-गोशा मानो रौशन हो उठा। सच जैसा उन्होंने कहा था.... "चल मेरे साथ ही चल..." दिल उन्हीं दो आवाजों के पीछे चल ही तो पड़ा.
जनाब अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन साहब की दिलकश आवाजें उस दिन पहली बार उस शानदार ग़ज़ल के रूप में सुनी और उनका बस मुरीद होकर रह गया।

ग़ज़ल का एक शेर तो आप शुरुआत में पढ़ ही चुके हैं, कमाल की शायरी का एक नमूना और देखिये....
"पीछे मत देख, ना शामिल हो गुनाहगारों में,
सामने देख कि मंजिल है तेरी तारों में..
बात बनाती है अगर दिल में इरादे हों अटल..
चल मेरे साथ ही चल........"


आकाशवाणी पटना का वो उर्दू प्रोग्राम फिर तो मेरा पसंदीदा कार्यक्रम ही बन गया जिसके जरिये मैंने अनेक शायरों के कलामों को सुना। पर उन सबकी चर्चा बाद में.

आज तो आप सुनें मेरी वही पसंदीदा ग़ज़ल जिसे अपनी आवाज़ से संवारा है जनाब अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन साहब ने.....

Get this widget Track details eSnips Social DNA

Monday, January 21, 2008

झूम बराबर झूम.......



संगीतप्रेमी सुधी पाठको,
नमस्कार।

आज बहुत दिनों बाद मैं आपके सामने फिर से हाजिर हूँ अपने एक और पसंदीदा कलाकार की खूबसूरत रचना को लेकर। जैसा आपको शीर्षक देख कर ही आभास हो गया होगा आज मैं आपको झूम जाने का आग्रह करने वाला हूँ।

ये रचना ना तो कोई पॉप है ना ही रैप और ना ही ये कोई आइटम गीत है। फिर भी मेरा विश्वास है आप झूम जरूर जायेंगे।

जी हाँ, आज मैं आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ वो कव्वाली जिसने मुझे पहली बार अपने हाथ और पैर थिरकाने पर मजबूर कर दिया था। इस पहली बार कहने का मतलब ये है कि जब मैं पालनें में ही था।

मेरे पापा हमारे गाँव में होने वाले नाटकों में मुख्य किरदार और निर्देशक दोनों के किरदार अदा करते थे। एक उम्दा गायक और एक अच्छे चित्रकार के भी गुण उनमें थे, बल्कि कहें कि हैं। पर और गाँववालों की तरह उन्हें भी आगे बढ़ने का सुअवसर नहीं मिल पाया और घर गृहस्थी, एक छोटी सी नौकरी में ऐसे फंसे कि अपने सारे मंसूबों का क़त्ल कर उन्होने अपने बच्चों में अपने सारे गुणों को उतार देने की कोशिश की और बहुत हद तक कामयाब भी हुए। बहरहाल, इस वक़्त मैं क़व्वाली की बात कर रहा था कि किस तरह पालने में ही मैं इस क़व्वाली को सुनकर अपने हाथ पैर थिरकाने लगता था।

मम्मी बताती हैं कि जब मैं पेट में था, पापा अक्सर वो क़व्वाली गुनगुनाते रहते थे, और जब भी इसे वो मेरे पालने के पास आकर गाते मैं अपना हाथ पैर मानो इसकी धुन पर थिरकाने लगता था। शायद इस क़व्वाली से मेरा नाता इतना पुराना था इस लिए बाद के वर्षों में भी इसे सुनकर मुझे एक अजीब सी अनुभूति होती थी, ज्यादा सच होगा ये कहना कि अभी भी वो अनुभूति बरकरार है। तभी तो मैं आपको भी उस नशीली क़व्वाली से रूबरू कराने आ गया हूँ।

यूँ तो हमारे यूनुस भाई कुछ दिनों पहले क़व्वाली पर अपनी पोस्ट्स लेकर आये ही थे और उन्होने कहा भी था कि उन्हें क़व्वालियाँ ज्यादा पसंद नहीं हैं। मैं ज़रा उनसे dis-agree करता हूँ, मुझे क़व्वालियाँ पसंद हैं, क्यूँ? शायद क़व्वालों की आवाज़ , शायद उनकी धुन , या शायद और कुछ।

आज ये कव्वाली " झूम बराबर झूम शराबी..." मशहूर क़व्वाल अज़ीज़ नाज़ां की बेमिसाल आवाज़ का का एक खूबसूरत नमूना है । इसे १९७४ में आई फिल्म " फाइव राइफल्स" से लिया गया है . इसमें मयखाना, साकी, अंगूर की बेटी भी है, जवानी की रवानी भी है, जीने का सहारा भी है।

क्या कहा आपने? आप इस अंगूर की बेटी को दूर से ही सलाम करते हैं. कोई बात नहीं, जरा लफ्जों के मय को ही नजरों के जाम से पीकर तो देखिये.... महसूस कीजिए उस मयख्वार की विकल पुकार को....
"ना हरम में... ना सुकून मिलता है बुतखाने में,चैन मिलता है साकी तेरे मयखाने में॥"

ज़रा शायर की कलम को तो दाद दीजिये, देखिये क्या कहा है---
"आज अंगूर की बेटी से मुहब्बत कर ले,
शेख साहब की नसीहत से बगावत कर ले।
इसकी बेटी ने उठा रखी है सर पर दुनिया,
ये तो अच्छा हुआ अंगूर को बेटा न हुआ।"

पूरी क़व्वाली सुनने के लिए मैं आपको बेसब्र नहीं करूंगा. जी हाँ...
" मौसमे गुल में ही पीने का मजा आता है,
पीने वालों ही को जीने का मजा आता है।"

तो दस्तक देती बसंती बयार में मय के जाम नहीं तो लफ्जों के जाम ही पिए जाँये। और कही जाए...
झूम बराबर झूम शराबी, झूम बराबर झूम.......

Jhoom Barabar Jhoo...