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Friday, February 29, 2008

वसंत और फगुआ

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वसंत अपने शवाब पर है और हवाओं में फगुनाहट की मादक महक सरसरा रही है. इसी अनुभव को आत्मसात करने के लिए मैं कुछ दिनों के लिए अपने गाँव चला गया था. यूँ तो गाँव जाने का मकसद कुछ और ही था पर फागुन के इस महीने में जो छटा चारों ओर फैली रहती है उसे देखने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पाया.

आइये आप भी बसंती फागुनी बयार को मेरे साथ महसूस करें.......

डॉक्टर्स की नियुक्ति के लिए ऑनलाइन आवेदन को भर कर मुझे अपने गृह जिला मुंगेर में जमा करना था. उसी सिलसिले में मैं पटना से 25 तारीख को को निकला और दोपहर 12:30 में मुंगेर पहुँच गया. सारी कागजी कारवाई करते हुए मुझे सवा तीन बज गए. अब मुझे यहाँ से अपने घर , महेशपुर , जो थाना तारापुर के अंतर्गत पड़ता है, जाना था. तारापुर मुंगेर से लगभग 50 KM पूर्व दक्षिण में स्थित है. यूँ तो डायरेक्ट बस सेवा भी उपलब्ध है पर आज कल चूंकि रेल क्रॉसिंग पर flyovers बन रहे हैं इसीलिए मैं ट्रेकर से बरियारपुर उतर गया. वहाँ से रेल पटरी पार कर खड़गपुर के लिए बस पकड़नी थी, चूंकि कोई भी सीधे तारापुर जाने के लिए तैयार नहीं था.

मैं एक बस में जा बैठा. घड़ी 4:45 का समय बता रही थी. सूर्य अब कुछ ही देर में खड़गपुर की पहाड़ियों की वादी में गुम हो जाने वाला था. जिन पहाड़ियों को मैं दूर से देखा करता था उन्हें आज फ़िर नजदीक देख रहा था. मुझे विश्वास था की 5:45 तक मैं खड़गपुर पहुँच जाऊँगा और वहाँ से आगे के लिए कोई वाहन मिल ही जायेगा. अंततः 5:00 बजे जाकर बस खुली.

अपनी मिट्टी की सुगंध ही कुछ और होती है. एक बार फ़िर मैं उस सुगंध को अपने जेहन में आत्मसात करना चाह रहा था या कहें कि एक परत और चढ़ा देना चाह रहा था. गाड़ी उस कच्ची पक्की सड़क पर अपनी गति से हिचकोले खाती हुई बढ़ रही थी. खिड़की के पास बैठा मैं सड़क के किनारे बसे गाँवों को देखता , अपना सा महसूस करता चला जा रहा था. वहीं पास में खड़गपुर की पहाड़ियाँ भी मुझसे कदम ताल मिला रही थी और सूरज भी उसके साथ भागा जा रहा था, मानो कह रहा हो अरे मैं आ रहा हूँ कहाँ जा रही हो.

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मैं अपने आप में खोया जा रहा था. उस ढलती शाम में कई यादें सर उठा रही थीं.... पापा के साइकिल पर school से घर लौटना, पापा का वो महापुरुषों की कहानिया सुनाना, खेत खलिहान में भाइयों के साथ तितलियाँ पकड़ना, दूसरे के आम के पेड़ों में ढेले मार कर टिकोले गिराना और जब डंडा लेकर आम का मालिक आए तो जोर से घर भागना.... चेहरे पर न चाहते हुए भी मुस्कराहट आ ही जा रही थी.

तभी एक जानी पहचानी सी सुगंध मुझे फ़िर से छेड़ने लगी. मैंने देखा किनारे बसे गाँवों में धान उसना जा रहा है और उसी उसनते धान की खुशबू चारों तरफ़ फ़ैल रही है. आज कल धान कट कर खलिहान से होते हुए घरों में आ गए हैं जहाँ उन्हें उसना जा रहा है अर्थात बड़े से कड़ाह में पानी के साथ धान को तबतक उबला जा रहा हैं जबतक कि उसके चावल मुलायम ना हो जाएं. फ़िर इन्हें सुखाया जायेगा और तब कूटा जायेगा जिससे निकले चावल को उसना चावल कहते हैं.

मेरी नजर अब बार - बार घड़ी की ओर जा रही थी. पौने छः बज चुके थे. सूर्य पहाड़ियों में उसी तरह ढल चुका था जैसा मैंने उसे हमेशा ढलते देखा था. शाम का धुंधलका अब धीरे धीरे गहराता जा रहा था. पर मैं अब भी 7 km दूर था. अपने आप को विश्वास दिला रहा था कि बस तो आगे के लिए मिल ही जायेगी. पापा का फ़ोन भी आ चुका था कि किसी को मोटरसाईकिल के साथ भेज दें मुझे लाने के लिए. पर मैंने कहा कि देखते हैं.

गाडी उसी तरह चलती हुई आख़िर 6 बजे खड़गपुर पहुँच ही गयी. जैसा कि आशंका हो ही रही थी आगे के लिए कोई गाड़ी नही थी. मैंने पापा को कह दिया किसी को भेज दें. शाम रात में तब्दील होती जा रही थी. मुझे भूख भी लग आई थी, क्योंकि जल्दी जल्दी गाड़ी पकड़ने के चक्कर में खाना भी नहीं खाया कहीं.

6:35 में मोटरसाईकिल आ गयी. शाम अब रात बन चुकी थी. खड़गपुर में भी बिजली नही थी और दुकानों में  जनरेटर से जलते हुए CFL लटके हुए मानो ऊँघने लगे थे. रात की सरसराती ठंढी हवाएं मानो कानों को बेध रही थीं. चौड़े मगर उबड़ खाबड़ सडकों पर अभी 12 KM का सफर और भी तय करना था. रास्ते के किनारे बसे गाँव भी पीछे छूटते जा रहे थे. घरों से झांकती लालटेन की रोशनी कहती कि कोई घर नजदीक ही हैं. दूर से भी टिमटिमाती रोशनी गांवों का आभास दिला रही थी. बीच सड़क पर जुगाली करते जानवर, टॉर्च लेकर दिशा मैदान से फारिग होने जाती औरतें और लड़कियां, लालटेन की मद्धिम रोशनी में कहीं दूध दुहते लोग, कहीं अपने ओसारे में कुछ बच्चों को पढ़ाते मास्टर साहेब, गुजरती मोटरसाईकिल को देखते बच्चे... अपना सा लगने लगा था.

एक तो ऊपर खाबड़ सड़क उस पर भी बिना डीपर देते हुए गुजरते बड़े बड़े ट्रक, मेरा चचेरा भाई अमित बखूबी बाइक की हैन्डल सम्हाले हुए था और मैं पीछे बैठा अपने गंतव्य की ओर बढे जा रहे थे. ठंढी हवाओं से आंखों में पानी भर आया था. आख़िरकार 7:15 में हमलोग घर पहुँच ही गए.मम्मी पापा अपने लाडले को सकुशल आया देख खुश हो रहे थे.

रात को खाकर लेटा तो ढोलक की थाप, हारमोनियम की धुन और झाल की खनखनाहट कानों में एक दूसरा ही सुरूर पैदा करने लगी. फागुन का महीना चल रहा है और मेरे गाँव में फगुआ गाया जा रहा था. बसंत पंचमी के बाद ही पूर्वांचल के जनपदों में होली के गीत गाए जाने लगते हैं और ये सिलसिला होली तक बरकरार रहता है. कहीं कहीं इसे फाग भी कहा जाता है, पर हमारे अंग प्रदेश में इसे फगुआ कहा जाता है. फगुआ मतलब फागुन, होली.

...................................

दूसरे दिन एक सुहानी सुबह ने हमारा स्वागत किया. चाय पीकर मैं अपने खेतों खलिहान की ओर निकल गया. खलिहान में लगे आम के हमारे दोनों पेड़ों में मंजर खूब आए हुए है और वो मानो लद कर और झुक कर मुझे सलाम कर रहे थे. आख़िर दोनों पेड़ों को दोनों भाइयों के नाम पर जो लगाया गया हैं. लगता हैं इस बार खूब आम खाने को मिलेंगे. पर ये शैतान बच्चे उन्हें इसी तरह रहने देंगे तब ना. वो ढेले मार मार कर बहुत झाड़ देंगे.

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खेतों में गेहूँ की बालियाँ हवाओं के साथ अठखेलियाँ कर रही थी. कही कहीं सरसों भी फूल रही थी. आलू भी अब उखड़ने लगेंगे.

मेरे घर में भी काम लगा हुआ है. पुराने घर के ऊपर एक और मंजिल बन चुकी है, प्लास्टर किया जा रहा है.

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26 फरवरी की शाम, दिन मंगलवार. 7:15 बजे हैं और मेरे घर के बगल के शिव मंदिर से ढोलक की थाप और झाल की वो झनझनाहट सुनाई पड़ने लगी. हाँ, हरेक मंगलवार को यहाँ गाँव के लोग खाना पीना खाकर जुटते हैं और लगभग दो घंटे भक्ति की रसधार बहती रहती है. पाँच छः लोगों की टोली भजन गायन करती है और लोग भक्तिमय हो जाते हैं. साज के नाम पर मात्र हारमोनियम, ढोलक और झाल. परन्तु संगीत चमत्कृत और दिल में उमंग भर देने वाला.

भगवान शिव की वंदना से शुरू होकर ये कार्यक्रम शिव भजन से ही समाप्त हो जाता है. बीच में माँ काली, माँ दुर्गा, राम,कृष्ण सारे देवताओं की स्तुति की जाती है. आज कल मौसम को देखते हुए तीन चार अच्छे फगुआ भी गाए जाते हैं. इसी तरह बारहमासे, चैतावर आदि भी समय समय पर शामिल किए जाते हैं.

कार्यक्रम शुरू था और मैं उसका आनंद उठा रहा था तभी लगा कि ये तो मेरे पोस्ट के लिए एक अच्छी चीज है. बस फ़िर क्या था, मैं रेकॉर्ड कराने के जुगाड़ में लग गया. पर कोई साधन उपलब्ध नहीं था. हाँ आल टाइम good मोबाइल जरूर हाथ में था. इसी में मैंने रेकॉर्ड कर लिया. हालांकि क्वालिटी ठीक नहीं है फ़िर भी एक आनंद जरूर आपको आयेगा.

सबसे पहले सुने भगवान् शिव के पंचाक्षर मन्त्र " नमः शिवाय " का गायन, इसी से कार्यक्रम की समाप्ति होती है.

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अब सुनें एक फगुआ गीत जिसकी फरमाइश मैंने की थी और गायन मंडली ने सोचने के बाद ये गीत गाया था. गीत का भाव है कि राजा दशरथ अपने महल में होली का आयोजन कर रहे हैं और उन्होंने सारे देवताओं को आमंत्रित किया है. सारे देवता अपने अपने तरीके से आ रहे हैं. सुनिए और पढ़िये.....

raja dashrath ke d...

राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
इन्द्रलोक से इन्द्र जी आए, घटा उठे घनघोर,
बूँद बरसत आए...
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
ब्रह्मलोक से ब्रह्मा आए,पोथियां लिए हाथ,
वेद बांचत आए...
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
शिवलोक से शिवजी आए , गौरा लिए साथ,
भांग घोटत आए..
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
वृन्दावन से कान्हा आए राधा लिए साथ.
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..

Thursday, February 21, 2008

बदन पे सितारे लपेटे हुए......

दोस्तो,

आपने मेरी ग्रामोफोन गाथा को पसंद किया और इसका पहला भाग भी आपने देखा. आप सभी का शुक्रिया.

हमारे कई संगीतप्रेमी मित्रों ने सलाह दी कि इस मजेदार गाथा को आगे भी जारी रखा जाए. आप सबों का अनुरोध मैं कैसे ठुकरा सकता हूँ. वैसे भी यूनुस भाई ने अपने विविध भारती के ख़जाने से मेरे पोस्ट के लिए रेकॉर्ड्स की दुर्लभ तस्वीरें भेजी हैं. आप सबों के लिए इस गाथा का अगला और मनोरंजक भाग भी जल्द ही लेकर आऊँगा.

पर आज थोड़ा सा विषयांतर ....

आज पहली बार आपका ये दोस्त अपनी पोस्ट पर यू ट्यूब का विडियो लेकर हाजिर हुआ है. वैसे मैं गानों को देखने से ज्यादा सुनना पसंद करता हूँ पर आज जिस विडियो क्लिप को मैं आपके लिए लेकर आया हूँ वो सचमुच बेजोड़ है. हुआ यूँ कि मैंने अपने पीसी के ऑपरेटिंग सिस्टम विन्डोज़ XP प्रोफेशनल के लुक को बिल्कुल विन्डोज़ विस्टा की तरह कर दिया है और उसी सिलसिले में नेट पर कुछ खोजबीन कर रहा था तो मुझे ये विडियो क्लिप मिली. तो दिमाग में एक बात आयी कि क्यूं न एक पोस्ट ही लिख दी जाए. तो लीजिये हाजिर है....

फ़िल्म " प्रिंस " सन् 1969  में आयी थी और इसके मुख्य कलाकार थे शम्मी कपूर साहब, वैजयंतीमाला जी, अजीत साहब और हेलन जी. यह फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट रही थी. फ़िल्म में संगीत शंकर-जयकिशन जी का था. शम्मी कपूर साहब की अन्य फिल्मों की तरह ही इस फ़िल्म में भी उनके लिए पार्श्व गायन किया था मोहम्मद रफी साहब ने.

आज मैं आपके लिए इसी फ़िल्म का एक बेहतरीन गीत लेकर हाजिर हुआ हूँ. ये गाना क्या है साहब, पूरे बदन को थिरका देने का पूरा इंतजाम है. वैसे भी जिस गाने में शम्मी कपूर साहब हों और वो गाना पूरे शरीर को मरोड़ कर ना रख दे ऐसा कभी कभी ही होता है.


ज़रा शुरुआत देखिये...तेज ऑर्केस्ट्रा के बीच वैजयंतीमाला जी चमकदार साड़ी में तेज कदमों से चलती हुई आती हैं और शम्मी साहब के अनुरोध को ठुकरा कर अजीत जी के साथ डांस करने लगती हैं. तभी रभी साहब की झूमती हुई मस्ती भरी आवाज़ फिजा में तैरने लगती है और शुरू होती है शम्मी साहब की वो यूनिक अदाएं.
अदाएं जारी रहती हैं, नायिका नायक के साथ हो लेती हैं.. और बेचारे अजीत साहब देखते रह जाते है..
आइये देखें इसी गाने को यू ट्यूब पर.

                          


आपने शम्मी कपूर साहब की मस्ती देखी, वैजयंतीमाला जी का हुस्न देखा, अजीत साहब की बेचारगी देखी; आइये अब तस्वीर का दूसरा और मनोरंजक रुख देखें.


मोहम्मद रफ़ी साहब के एक लाइव कंसर्ट की विडियो क्लिप जिसमें रफ़ी साहब ने इसी गाने को जनता के सामने गाया है. बैकड्रॉप में अकॉर्डियन और सेक्सोफोन का जबरदस्त साथ. गायकी में वही मस्ती, वही चुलबुलापन, पर आप देखें... क्या कुछ नया लगा? कुछ मस्ती छायी?


आइये जब पूरी दुनिया ही बसंत के खुमार में डूबी है तो न रफ़ी साहब पीछे रहे हैं न हम रहेंगे....

 

                           

 

कहिये कैसी रही...........

Tuesday, February 19, 2008

अथ श्री ग्रामोफोन गाथा....




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( एक बार आप लोगों से क्षमा प्रार्थना के साथ ये पोस्ट आपके लिए फ़िर से हाजिर है...)

...... ग्रामोफोन से मेरा परिचय तो भैया ने करवा ही दिया पर ये परिचय एक लगाव में परिणत हो गया। अब तक जिन गानों से मेरा सिर्फ़ दूर का नाता था अब वो मेरे क़रीब बजने लगे थे और मैं सम्मोहित सा हो गया था.

जब भी गाने बजने लगते मैं मम्मी से बहाने बनाकर पहुँच जाता ग्रामोफोन के पास। उसे इस क़दर देखता मानो अभी गाने वाले उसके अन्दर से बाहर आ जायेंगे। बाहर वो बड़ा सा भोंपू ( लाउड स्पीकर) बजता होता फ़िर भी कान लगा कर सुनने की कोशिश करता कि अभी भी यहाँ से आवाज़ निकल रही है कि नहीं.आस पास देखता कि कोई नहीं है तो सुई उठा कर कभी बीच में रख देता तो कभी अंत में। लोग दौड़े आते कि एक गाना बज रहा था तो अचानक दूसरा कैसे बजने लगा, और मेरा कान उमेठ दिया जाता जैसे मेरा कान ही उस ग्रामोफोन का handle हो.


ये मेरे लिए बहुत ही अचरज का विषय होता कि जब हम सुई को चकती के एक किनारे में रखते हैं तो वो उस अन्तिम किनारे तक कैसे पहुँच जाती है। भैया बताते कि चकती में खाँच बने हुए हैं. पर मुझे समझ में नहीं आता. मुझे तो वो रेकॉर्ड, जी हाँ, चकती को रेकॉर्ड कहते हैं ये मैं जान गया था, बिल्कुल चिकना नजर आता था.


अब जब रेकॉर्ड का मतलब मुझे पता चल चुका था तो भी मुझे एक परेशानी ने घेर लिया था। जब भी बड़े लोग ,भैया लोग कहते - ओह आज त पानी एतना पड़ै छै कि रेकार्डे टूटी जैतै, एतना रन बनैलकै कि रेकार्डे टूटी गेलै.... - मैं तो मुश्किल में पड़ जाता कि ये रेकॉर्ड कैसे टूट जायेगा, ये तो बक्से में बंद है. ये परेशानी भी बाद में दूर हुई.


ग्रामोफोन की बात करूं और मैं उसके रेकॉर्ड्स की बात ना करूं तो बात पूरी हो ही नहीं सकती। आख़िर सारे गानों की जान तो वही थे.

एक छोटे से बक्से में बंद रहते थे वे सारे रेकॉर्ड्स। बहुत नाजुक मिजाज़ वे रेकॉर्ड्स अगर हाथ से छूट गए तो फ़िर गए. काले काले चमकते हुए रेकॉर्ड्स जिनके बीच में लाल रंग का गोल सा कागज़ चिपका होता था जिसपर कंपनी का लेबल फ़िल्म का नाम ,गानों के नाम, और सारे विवरण होते.
वैसे तो भैया के पास अधिकतर छोटे साइज़ के रेकॉर्ड्स ( 7 इंच के) थे पर कुछ उनके पास बड़े रेकॉर्ड्स ( १२ इंच के) भी थे। इन बड़े और छोटे साइज़ के रेकॉर्ड्स के बारे में पूरी जानकारी आप यहाँ(विकिपीडिया) से ले सकते हैं।

मैं उन रेकॉर्ड्स के लेबल्स पर के नामों को पढ़ता और कुछ-कुछ समझने की कोशिश करता। पर उनमें से मुझे सबसे ज्यादा fascinate किया HMV के उस logo ने - एक ग्रामोफोन और उसके आगे बैठा एक कुत्ता,जो मानो उस लाउड स्पीकर में गा रहा है.... या सुन रहा है.? मुझे आज तक समझ नहीं आया है. भैया के पास जितने भी रेकॉर्ड्स थे उनमे वो logo रहता ही था अर्थात वो सभी HMV के ही थे. कुछेक मुझे याद आती है के दूसरी कंपनियों के थे. तभी से शायद मुझे HMV से एक तरह का लगाव हो गया, जब मैंने अपना कैसेट प्लेयर खरीदा तो सबसे ज्यादा HMV के ही कैसेट खरीदे।


उतने सारे रेकॉर्ड्स के बीच में जो गाने मुझे याद आते हैं उनकी फिल्में हैं - रोटी,कपडा और मकान॥, जय संतोषी माँ, और नदिया के पार।


आज इस ग्रामोफोन गाथा को आगे बढ़ाने का श्रेय अगर मैं दूंगा तो वो इन्हीं फिल्मों के गाने हैं जिन्हें मैं लाख चाहूँ , अपने जेहन से कभी उतार नहीं सकता। कल मैंने आपसे वादा किया था आपके लिए एक पॉडकास्ट लेकर आऊँगा, तो दोस्तो, इन्हीं में से एक गाने को मैं आपके लिए लेकर आया हूँ. इस गाथा को मैं आज अपने अंजाम तक पहुँचाउंगा और इसके साथ ही शुरुआत होगी एक ऐसे फ़नकार पर एक श्रृंखला की जिन पर शायद सबसे कम लिखा गया.


एक ऐसा फ़नकार जिसने हमें इतने खूबसूरत गीतों से नवाज़ा। अपनी मधुर और रस बरसाती आवाज़ का जादू हमपर बरसाने के बाद आज की इस शोर भरे संगीत से अलग रख कर अपनी संगीत साधना में तल्लीन है.


यूँ तो फ़िल्म " नदिया के पार" के सभी गाने एक से बढ़कर एक हैं, और आपने उन्हें खूब सुना भी होगा. पर आज जो गीत मैं आपको सुनवाने जा रहा हूँ, उसे मैंने पहली बार पसंद किया था जब वो ग्रामोफोन पर बजता था। हेमलता और जसपाल सिंह जी की मधुर आवाज़ का जादू उस समय भी मेरे मन पर वैसे चढ़ा था मानो कभी नहीं उतरेगा और ये सौ फीसदी सच है.आंचलिकता की खुशबू समेटे ये दोगाना ग्रामीण परिवेश के प्रेमियों के बीच निश्छल प्यार की शुरुआत और छेड़ छाड़ के रिश्ते की क्या खूब कहानी कहता है. रवीन्द्र जैन जी का दिल को छू लेने वाला संगीत मानो हमारे सामने गाँव की उसी दुनिया को साकार कर देता है.

"साथ अधूरा तब तक जब तक,

पूरे ना हों फेरे सात हो।"

आइये गीत सुने और उस फ़नकार के फ़न को सलाम करें।

Kaun Disha Mein Le...

Sunday, February 17, 2008

भैया का वो बाजा ....


दोस्तो,
एक बार मैं फिर हाजिर हूँ आपको अपने उन अनुभवों से रूबरू कराने को जिनसे मैं ख़ुद पहली बार मिला था।

इस 'पहली बार' की कड़ी में पहले आप मिल चुके है अज़ीज़ नाजां की उस क़व्वाली से, अहमद हुसैन-मुहम्मद हुसैन की उस ग़ज़ल से, उस भजन से, और जगजीत सिंह जी से।

आज फिर मैं हूँ, आप हैं और है वो ...
जी हाँ, वो ग्रामोफोन , जिसे मैंने पहली बार अपने बड़े बाबूजी के यहाँ देखा। चूंकि उसे उनके बड़े बेटे प्रमोद भैया ही चलाते थे इसलिए मैं उसे भैया का बाजा ही कहता था।

पाँच - छः साल का रहा होऊंगा तब। रेडियो से जुडाव तब नया नया ही था। वो भी बच्चों के कार्यक्रम बाल मंजूषा तक ही. रेडियो पर गाने भी आते ही थे उस समय भी. पर यदि मैं कहूं कि सही मायनों में गानों से मेरे लगाव की वजह वो ग्रामोफोन ही था तो मैं ग़लत नहीं हूँ.

जब भी गाँव में शादी-ब्याह होते, नाटक होते, सरस्वती पूजा या काली पूजा होती, छठ पर्व की धूम नदी किनारे होती, इन अवसरों पर वो ग्रामोफोन खूब बजता।

हालांकि मेरे और भैया के घर के बीच दीवारें पड़ चुकी थी पर दिलों पर खींची दीवार अभी ऊंची नहीं हुई थी. पापा मुझे अपने कंधे पर बिठाकर उस घर में ले जाते और बड़ी माँ को आवाज़ देते हुए कहते- क्या मालकिन जी...? फ़िर मैं वहीं खेलने लगता।

उन्हीं दिनों में मैंने घूमने वाली और गाने वाली वो मशीन देखी थी। एक बक्सा जो खुला हुआ था और उसपर रखी थी घूमने वाली चकती। बगल में एक छोटे बक्से में भर कर रखी हुई कई काली चकतियाँ. उन काली चकतियों के बीच में लाल गोल कागज़ चिपका हुआ जिस पर बना था HMV का वो मशहूर प्रतीक- ग्रामोफोन के आगे बैठा एक कुत्ता.

तो साहब, मैं उस पूरे यंत्र को देख ही रहा था कि भैया ने उसकी handle घुमाई। एक लाल-काली चकती को उस पर रखा और वो चकती उस पर गोल घूमने लगी.भैया ने एक और handle को बक्से से उठाकर उस चकती के किनारे में रख दिया.
जनाब, छत पर रखे उस लाउड-स्पीकर से गाने बजने लगे।लाउड-स्पीकर तो मैं पहले से पहचानता ही था क्योंकि वो तो हमेशा बाहर से दिखता ही था और पापा ने उसका नाम भी बता दिया था। लेकिन उस बड़े से भोंपू के पीछे ये मशीन है, मैंने पहली बार ही जाना था।

गाने बजते जा रहे थे और मैं handle से छेड़ छाड़ करने लगा तभी भैया ने डांटा - सुई टूट जायेगी... सुई कहाँ है.? मैंने पूछा. तब उन्होंने बताया कि सुई इस handle के नीचे है और वो बहुत जल्दी टूट जाती है।

......इस तरह ग्रामोफोन से मेरा पहला परिचय हुआ था। वो बिजली से भी चलता था और बिना बिजली के भी, handle उमेठने के बाद।

एक दिन मम्मी ने तीज किया था, गाँव की और भी औरतें आयी थीं. ग्रामोफोन भी आया था अपने भाई भोंपू के साथ. रात भर "जय संतोषी माँ" फ़िल्म के भजन बजते रहे. दिन में बिजली कट गयी. कोई नहीं था अगल बगल, मुझे शरारत सूझी, मैं पहुँच गया ग्रामोफोन के पास. handle घुमाया, "नदिया के पार" की चकती उस पर रखी और चला दिया. मुझे कुछ बजता हुआ सुनाई दिया. कान लगाया तो पता चला जैसे जैसे सुई घूम रही थी वहीं पर आवाज़ भी निकल रही थी.मेरे लिए तो और आश्चर्य का विषय था. मैं इसके बारे में सबको बता रहा था.

शायद किस्सा -ए-ग्रामोफोन कुछ लंबा होता जा रहा है.... पर अभी तो भूमिका ही बांधी है मैंने।
अगर आप साथ देंगे तो इससे जुड़ा एक पॉडकास्ट भी आपके नज्र किया जायेगा।
मुझे आशा है कि आप दूसरा भाग भी जरूर पढ़ेंगे.