बीते चौदह सालों में काफ़ी कुछ बदल जाता है. हमारे जीवन में, हमारे आसपास एक अलग दुनिया नज़र आने लगती है. स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे ख़ुद बाल बच्चेदार हो जाते हैं, उस समय के युवा प्रौढ़ता की ओर अग्रसर होने लगते हैं. युवाओं की जिम्मेदारियाँ बढ़ने लगती है.
पर, आज भी जो समस्या उसी रूप में हमारे सामने मुँह बाये खड़ी है वो है प्रदूषण की समस्या. शायद उसी स्थिति में और विकट होकर हमारे सामने प्रकट है.
1994 में स्कूल में पढ़ने वाले एक विद्यार्थी को उस समय के अख़बारों में आने वाली खबरें उद्वेलित करती रहती थीं. प्रदूषण.. प्रदूषण... और प्रदूषण.
इन्हीं सारी ख़बरों को पढ़ सुन कर मेरे मन में कुछ लिखने का ख़याल आने लगा था, जिसे अपनी तुकबंदी के जरिये मैनें कागज़ पर उतारा था. आईये पढ़े उस समय लिखी मेरी वही कविता जिसे मैंने जिस तरह उस समय कागज़ पर लिखा था वैसे ही अभी छाप रहा हूँ.
प्रदूषण
इस जमाने में,
कब साँस बंद हो जाये,
सोच रहे हैं जन जन.
क्योंकि विकराल रूप में
पाँव पसार रहा है प्रदूषण.
मानवों के
विकृत मन को भाँपकर,
आठ आठ आँसू
बहा रहा है कण कण.
हरियाली नष्ट हो रही है,
बड़ी तादाद में
उजड़ रहे हैं वन वन.
क्योंकि विकराल रूप में
पाँव पसार रहा है प्रदूषण.
गुबार
उड़ रहे हैं धुयें के,
नरक
बन रहा है अब चमन.
बादल
गरज रहे हैं घन घन,
पर पानी की जगह
तेजा़ब
बरस रहा है क्षण क्षण.
क्योंकि विकराल रूप में
पाँव पसार रहा है प्रदूषण.
धरती पर
रहना दूभर है सो,
गगन में
बन रहे हैं अब भवन.
क्योंकि विकराल रूप में
पाँव पसार रहा है प्रदूषण.
5 comments:
अजीत जी,
कुछ समस्याएँ कभी नहीं बदलती बल्कि और विकराल रूप में सामने आती हैं क्योंकि कविता लिखने से समस्या का समाधान नहीं होता । प्रदूषण वैसे भी किसी एक आदमी के बस की बार नहीं है, सबका मिला जुला प्रयास ही इससे मुक्ति दिला सकता है। कविता सँभाल कर रखिए आगे भी काफी समय तक काम आएगी ः)
ऐसा लग रहा है जैसे आज कल में ही रचित है. वैसे ऐसा ही लगता रहेगा आज से चौदह साल बाद भी. बहुत खूब!!
चिंता जायज है .. और सुन्दर कविता से आपने अपना संदेश दिया।
ज्यादा अच्छा होता अगर आप उस १४ साल पुराने पन्ने को स्कैन कर यहाँ लगाते।
पाँव पसारना चालू किया था अब पाँव पसर गए हैं फिर भी रुकने का नाम नहीं ले रहा, सुरसा के मुंह की तरह ये बढ़ता ही जा रहा है...
एक दानव जिसे हमने ही जनम दिया था आज हमीं को खा रहा है।
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