वसंत अपने शवाब पर है और हवाओं में फगुनाहट की मादक महक सरसरा रही है. इसी अनुभव को आत्मसात करने के लिए मैं कुछ दिनों के लिए अपने गाँव चला गया था. यूँ तो गाँव जाने का मकसद कुछ और ही था पर फागुन के इस महीने में जो छटा चारों ओर फैली रहती है उसे देखने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पाया.
आइये आप भी बसंती फागुनी बयार को मेरे साथ महसूस करें.......
डॉक्टर्स की नियुक्ति के लिए ऑनलाइन आवेदन को भर कर मुझे अपने गृह जिला मुंगेर में जमा करना था. उसी सिलसिले में मैं पटना से 25 तारीख को को निकला और दोपहर 12:30 में मुंगेर पहुँच गया. सारी कागजी कारवाई करते हुए मुझे सवा तीन बज गए. अब मुझे यहाँ से अपने घर , महेशपुर , जो थाना तारापुर के अंतर्गत पड़ता है, जाना था. तारापुर मुंगेर से लगभग 50 KM पूर्व दक्षिण में स्थित है. यूँ तो डायरेक्ट बस सेवा भी उपलब्ध है पर आज कल चूंकि रेल क्रॉसिंग पर flyovers बन रहे हैं इसीलिए मैं ट्रेकर से बरियारपुर उतर गया. वहाँ से रेल पटरी पार कर खड़गपुर के लिए बस पकड़नी थी, चूंकि कोई भी सीधे तारापुर जाने के लिए तैयार नहीं था.
मैं एक बस में जा बैठा. घड़ी 4:45 का समय बता रही थी. सूर्य अब कुछ ही देर में खड़गपुर की पहाड़ियों की वादी में गुम हो जाने वाला था. जिन पहाड़ियों को मैं दूर से देखा करता था उन्हें आज फ़िर नजदीक देख रहा था. मुझे विश्वास था की 5:45 तक मैं खड़गपुर पहुँच जाऊँगा और वहाँ से आगे के लिए कोई वाहन मिल ही जायेगा. अंततः 5:00 बजे जाकर बस खुली.
अपनी मिट्टी की सुगंध ही कुछ और होती है. एक बार फ़िर मैं उस सुगंध को अपने जेहन में आत्मसात करना चाह रहा था या कहें कि एक परत और चढ़ा देना चाह रहा था. गाड़ी उस कच्ची पक्की सड़क पर अपनी गति से हिचकोले खाती हुई बढ़ रही थी. खिड़की के पास बैठा मैं सड़क के किनारे बसे गाँवों को देखता , अपना सा महसूस करता चला जा रहा था. वहीं पास में खड़गपुर की पहाड़ियाँ भी मुझसे कदम ताल मिला रही थी और सूरज भी उसके साथ भागा जा रहा था, मानो कह रहा हो अरे मैं आ रहा हूँ कहाँ जा रही हो.
मैं अपने आप में खोया जा रहा था. उस ढलती शाम में कई यादें सर उठा रही थीं.... पापा के साइकिल पर school से घर लौटना, पापा का वो महापुरुषों की कहानिया सुनाना, खेत खलिहान में भाइयों के साथ तितलियाँ पकड़ना, दूसरे के आम के पेड़ों में ढेले मार कर टिकोले गिराना और जब डंडा लेकर आम का मालिक आए तो जोर से घर भागना.... चेहरे पर न चाहते हुए भी मुस्कराहट आ ही जा रही थी.
तभी एक जानी पहचानी सी सुगंध मुझे फ़िर से छेड़ने लगी. मैंने देखा किनारे बसे गाँवों में धान उसना जा रहा है और उसी उसनते धान की खुशबू चारों तरफ़ फ़ैल रही है. आज कल धान कट कर खलिहान से होते हुए घरों में आ गए हैं जहाँ उन्हें उसना जा रहा है अर्थात बड़े से कड़ाह में पानी के साथ धान को तबतक उबला जा रहा हैं जबतक कि उसके चावल मुलायम ना हो जाएं. फ़िर इन्हें सुखाया जायेगा और तब कूटा जायेगा जिससे निकले चावल को उसना चावल कहते हैं.
मेरी नजर अब बार - बार घड़ी की ओर जा रही थी. पौने छः बज चुके थे. सूर्य पहाड़ियों में उसी तरह ढल चुका था जैसा मैंने उसे हमेशा ढलते देखा था. शाम का धुंधलका अब धीरे धीरे गहराता जा रहा था. पर मैं अब भी 7 km दूर था. अपने आप को विश्वास दिला रहा था कि बस तो आगे के लिए मिल ही जायेगी. पापा का फ़ोन भी आ चुका था कि किसी को मोटरसाईकिल के साथ भेज दें मुझे लाने के लिए. पर मैंने कहा कि देखते हैं.
गाडी उसी तरह चलती हुई आख़िर 6 बजे खड़गपुर पहुँच ही गयी. जैसा कि आशंका हो ही रही थी आगे के लिए कोई गाड़ी नही थी. मैंने पापा को कह दिया किसी को भेज दें. शाम रात में तब्दील होती जा रही थी. मुझे भूख भी लग आई थी, क्योंकि जल्दी जल्दी गाड़ी पकड़ने के चक्कर में खाना भी नहीं खाया कहीं.
6:35 में मोटरसाईकिल आ गयी. शाम अब रात बन चुकी थी. खड़गपुर में भी बिजली नही थी और दुकानों में जनरेटर से जलते हुए CFL लटके हुए मानो ऊँघने लगे थे. रात की सरसराती ठंढी हवाएं मानो कानों को बेध रही थीं. चौड़े मगर उबड़ खाबड़ सडकों पर अभी 12 KM का सफर और भी तय करना था. रास्ते के किनारे बसे गाँव भी पीछे छूटते जा रहे थे. घरों से झांकती लालटेन की रोशनी कहती कि कोई घर नजदीक ही हैं. दूर से भी टिमटिमाती रोशनी गांवों का आभास दिला रही थी. बीच सड़क पर जुगाली करते जानवर, टॉर्च लेकर दिशा मैदान से फारिग होने जाती औरतें और लड़कियां, लालटेन की मद्धिम रोशनी में कहीं दूध दुहते लोग, कहीं अपने ओसारे में कुछ बच्चों को पढ़ाते मास्टर साहेब, गुजरती मोटरसाईकिल को देखते बच्चे... अपना सा लगने लगा था.
एक तो ऊपर खाबड़ सड़क उस पर भी बिना डीपर देते हुए गुजरते बड़े बड़े ट्रक, मेरा चचेरा भाई अमित बखूबी बाइक की हैन्डल सम्हाले हुए था और मैं पीछे बैठा अपने गंतव्य की ओर बढे जा रहे थे. ठंढी हवाओं से आंखों में पानी भर आया था. आख़िरकार 7:15 में हमलोग घर पहुँच ही गए.मम्मी पापा अपने लाडले को सकुशल आया देख खुश हो रहे थे.
रात को खाकर लेटा तो ढोलक की थाप, हारमोनियम की धुन और झाल की खनखनाहट कानों में एक दूसरा ही सुरूर पैदा करने लगी. फागुन का महीना चल रहा है और मेरे गाँव में फगुआ गाया जा रहा था. बसंत पंचमी के बाद ही पूर्वांचल के जनपदों में होली के गीत गाए जाने लगते हैं और ये सिलसिला होली तक बरकरार रहता है. कहीं कहीं इसे फाग भी कहा जाता है, पर हमारे अंग प्रदेश में इसे फगुआ कहा जाता है. फगुआ मतलब फागुन, होली.
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दूसरे दिन एक सुहानी सुबह ने हमारा स्वागत किया. चाय पीकर मैं अपने खेतों खलिहान की ओर निकल गया. खलिहान में लगे आम के हमारे दोनों पेड़ों में मंजर खूब आए हुए है और वो मानो लद कर और झुक कर मुझे सलाम कर रहे थे. आख़िर दोनों पेड़ों को दोनों भाइयों के नाम पर जो लगाया गया हैं. लगता हैं इस बार खूब आम खाने को मिलेंगे. पर ये शैतान बच्चे उन्हें इसी तरह रहने देंगे तब ना. वो ढेले मार मार कर बहुत झाड़ देंगे.
खेतों में गेहूँ की बालियाँ हवाओं के साथ अठखेलियाँ कर रही थी. कही कहीं सरसों भी फूल रही थी. आलू भी अब उखड़ने लगेंगे.
मेरे घर में भी काम लगा हुआ है. पुराने घर के ऊपर एक और मंजिल बन चुकी है, प्लास्टर किया जा रहा है.
26 फरवरी की शाम, दिन मंगलवार. 7:15 बजे हैं और मेरे घर के बगल के शिव मंदिर से ढोलक की थाप और झाल की वो झनझनाहट सुनाई पड़ने लगी. हाँ, हरेक मंगलवार को यहाँ गाँव के लोग खाना पीना खाकर जुटते हैं और लगभग दो घंटे भक्ति की रसधार बहती रहती है. पाँच छः लोगों की टोली भजन गायन करती है और लोग भक्तिमय हो जाते हैं. साज के नाम पर मात्र हारमोनियम, ढोलक और झाल. परन्तु संगीत चमत्कृत और दिल में उमंग भर देने वाला.
भगवान शिव की वंदना से शुरू होकर ये कार्यक्रम शिव भजन से ही समाप्त हो जाता है. बीच में माँ काली, माँ दुर्गा, राम,कृष्ण सारे देवताओं की स्तुति की जाती है. आज कल मौसम को देखते हुए तीन चार अच्छे फगुआ भी गाए जाते हैं. इसी तरह बारहमासे, चैतावर आदि भी समय समय पर शामिल किए जाते हैं.
कार्यक्रम शुरू था और मैं उसका आनंद उठा रहा था तभी लगा कि ये तो मेरे पोस्ट के लिए एक अच्छी चीज है. बस फ़िर क्या था, मैं रेकॉर्ड कराने के जुगाड़ में लग गया. पर कोई साधन उपलब्ध नहीं था. हाँ आल टाइम good मोबाइल जरूर हाथ में था. इसी में मैंने रेकॉर्ड कर लिया. हालांकि क्वालिटी ठीक नहीं है फ़िर भी एक आनंद जरूर आपको आयेगा.
सबसे पहले सुने भगवान् शिव के पंचाक्षर मन्त्र " नमः शिवाय " का गायन, इसी से कार्यक्रम की समाप्ति होती है.
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अब सुनें एक फगुआ गीत जिसकी फरमाइश मैंने की थी और गायन मंडली ने सोचने के बाद ये गीत गाया था. गीत का भाव है कि राजा दशरथ अपने महल में होली का आयोजन कर रहे हैं और उन्होंने सारे देवताओं को आमंत्रित किया है. सारे देवता अपने अपने तरीके से आ रहे हैं. सुनिए और पढ़िये.....
raja dashrath ke d... |
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
इन्द्रलोक से इन्द्र जी आए, घटा उठे घनघोर,
बूँद बरसत आए...
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
ब्रह्मलोक से ब्रह्मा आए,पोथियां लिए हाथ,
वेद बांचत आए...
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
शिवलोक से शिवजी आए , गौरा लिए साथ,
भांग घोटत आए..
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
वृन्दावन से कान्हा आए राधा लिए साथ.
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
7 comments:
बहुत-बहुत सुन्दर चिट्ठा अजीत जी !
वास्तव में यह चिट्ठा नहीं भारतीय संस्कृति की एक झलक है।
बंधुवर, दिल खुश कर दिया आपने!!!
बहुत बढ़िया!!
अजीत बहुत दिनों बाद इतनी अच्छी पोस्ट देखी है, बेहतरीन पोस्ट्…हम कभी गांव में रहे नहीं , गये नहीं, तुमने गांव तक की यात्रा का इतना सजीव वर्णन किया है कि हमें लगा हम भी उस यात्रा का हिस्सा हैं। गीत भी बहुत सुन्दर है। ऐसी ही पोस्त और लिखो न
बहुत ही सजीव वर्णन किया आपने यात्रा का, मानो हम खुद उस यात्रा में आपके साथ रहे हों।
बहुत बढ़िया लिखा आपने, गाँव गये बिना गाँव की यात्रा हो गई। :)
बहुत खूब..फागुन के गीत के साथ आपके यात्रा विवरण को पढ़कर आनंद आया.
Ajitbhai
Wonderful description of a village life. Nice holi geet.
Rgds.
-Harshad Jangla
Atlanta, USA
March 1 2008
bahut badhiya ,di khush hua ...aapko padhkar.
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