जय शिव शंकर!
दोस्तो,
यदि आपने मेरी कल की पोस्ट पढ़ी होगी, तो आप ने देखा होगा कि मैने एक बात शुरुआत में ही लिखी थी.. "......... पता नहीं कितने रूपों में सावन हमारे आस पास बिखरा पड़ रहा है. हर कोई अपने अपने तरीके से इसे समेटने में लगा है. ........आशा है हमेशा की तरह एक बार फ़िर आप मेरे साथ यादों के सफ़र के हमराह होंगे."
मैं झारखंड राज्य स्थित देवघर में अवस्थित बाबा भोलेनाथ के ज्योतिर्लिंग स्वरूप बाबा बैद्यनाथ, बाबा रावणेश्वर के बारे में चर्चा कर रहा था. आपने देखा कि किस तरह बाबा के इस स्वरूप की स्थापना हुई. आज तीसरी श्रावणी सोमवारी के पावन अवसर पर मैं आपको ले चल रहा हूँ इसी काँवरिया मार्ग पर जिसपर चलकर भक्तगण 105 km का दुरूह सफ़र पैदल तय करते हैं. और इसी से जुड़ी मेरी वो बचपन की यादें, जिनका हमराह मैं आपको बनाना चाह रहा हूँ. आशा है मेरे वे बिछड़े साथी जो दो महीने पहले मेरी blog यात्रा के रुकने पर मुझसे दूर हो गये थे फ़िर आ मिलेंगे.
बहरहाल मैं बात कर रहा था काँवरिया भक्तों की. भक्तगण दूर दूर के प्रदेशों से विभिन्न साधनों के द्वारा पहले सुलतानगंज पहुँचते हैं. सुल्तानगंज, बिहार राज्य के भागलपुर जिले में स्थित एक छोटा सा शहर है. जो देश से सड़क और रेल मार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है. यहीं बहती है उत्तरवाहिनी गंगा. यहाँ इस पतित पावनी उत्तरवाहिनी गंगा का अपना एक विशेष महत्व है. कहते हैं, भगवान राम ने यहीं काँवरिया वेश में गंगाजल भरकर पैदल राह तय कर बाबा बैद्यनाथ को जल अर्पण किया था. काँवर उठा कर ले जाने की प्रथा तभी से शुरू मानी जाती है.
उत्तरवाहिनी गंगा के तट पर पंडे श्रद्धालु भक्तों को संकल्प कराते हैं, श्रद्धालु पात्रों में जल भरते हैं और कंधे पर काँवर रख कर आकाश गुँजित उदघोष करते हैं - "बोल बम" और रवाना हो जाते हैं एक भक्तिमय लंबे पथ पर जिसपर लगभग तीन दिनों के सफ़र बाद वो मंजिल आनी है जब बाबा के दर्शन होंगे, एक संकल्प पूरा होगा. पूरे सावन महीने तक रोज लाखों की तादाद में काँवरियों का जत्था यहाँ से बाबा नगरी के लिये प्रस्थान करता है. एक दूसरे का उत्साह बढ़ाते काँवरिया चलते जाते हैं, बढ़ते जाते हैं. अगर मैं कहूँ कि काँवरिया नहीं चलते वरन काँवरियों का एक रेला सा चलता है तो ज्यादा सटीक होगा. दूर तक जहाँ तक भी नज़र जायेगी सिर्फ़ गेरुआ रंग की एक कतार सी ही दिखेगी पूरे काँवरिया पथ में.
बोल बम.. बोल बम. बोल बम.. बोल बम.
बाबा नगरिया दूर है, जाना जरूर है.. भैया बम, बोलो बम, माता बम बोलो बम, चाची बम , बोलो बम.
सारे काँवरिया एक दूसरे को बम कह कर संबोधित करते है.नाचते गाते काँवरिया आगे की ओर बढ़ते जाते हैं.
इस 105 किमी के सफ़र में कई पड़ाव आते हैं जब काँवरिया रुकते हैं, सुस्ताते हैं, अपनी थकान मिटाते हैं.सुल्तानगंज से लेकर बाबाधाम तक काँवरिया पथ के दोनों ओर खाने पीने की स्थाई और अनगिनत अस्थाई दुकाने हर कदम पर आपको मिलेंगी. अब इन दुकानों में खाने की क्वालिटी पर बहस हो तो वो एक अलग मुद्दा हो जायेगा. जगह जगह medical camp भी लगे होते हैं. थॊड़ी देर इनकी सेवायें लेने के बाद निकल पड़ते हैं आगे के सफ़र पर बोल बम की गुंजायमान उदघोष के साथ. इन्हीं कई पड़ावों में एक पड़ाव है " तारापुर" जहाँ का आपका यह दोस्त रहने वाला है. सुलतानगंज के बाद मुख्य पडावों मे हैं- मासूमगंज, असरगंज, रणग्राम और तब तारापुर. लगभग 20 किमी के बाद यह पड़ाव आता है तो अधिकतर काँवरिया यहीं रुकना पसंद करते हैं. तारापुर की आँखों देखी विवरणी मैं अपने अगले पोस्ट में दूंगा जब आप मेरे साथ पूरे तारापुर के काँवरिया पथ का सजीव वर्णन आपके सामने रखूंगा. फ़िलहाल आगे चलें...
तारापुर के बाद 7 किमी पर आता है रामपुर, एक दूसरा अति महत्वपूर्ण पड़ाव. यहा लगभग सभी काँवरिया रुकते हैं क्यूँकि अधिकतर काँवरियों के लिये यहाँ लगभग रात हो जाती है और आगे का सफ़र थोड़ा मुश्किल भरा हो जाता है.
दूसरे दिन सवेरे उठकर नित्य क्रिया से निवृत हो अपने काँवर पुन: कंधे पर टांग कर बम आगे की ओर निकल पड़ते हैं. यह भी नियम है कि काँवर को पूरे सफ़र के दौरान कभी भूमि स्पर्श नहीं होने देना है,सो काँवर को विश्र्ष प्रकार के बनाये गये stands पर ही रखा जाता है. इस दौरान कुत्ते अर्थात भैरो बम का स्पर्श भी वर्जित है सो सारे बम उससे बचते हुए चलते है. जब भी काँवर अपने स्थान से पुनः उठाया जाता है तो पहले पाँच बार कान पकड़ कर उठक बैठक लगाना भी अनिवार्य है. पूरे यात्रा के दौरान श्रृंगार प्रसाधनों का उपयोग भी वर्जित है.विशुद्ध शाकाहारी भोजन करते हुए और इन सारे कठिन नियमों का पालन करते हुए लोग बाबा के दरबार पहुँचते हैं.
रामपुर के बाद आता है कुमरसार फ़िर जिलेबिया मोड़. कुमरसार से आगे बढ़ते ही एक नदी पार करनी होती है, कभी कभी नदी का बहाव इतना तेज होता है कि सारे काँवरिया एक दूसरे को पकड़ कर चलने को बाध्य होते है. जिलेबिया मोड़, जैसा नाम से ही प्रतीत होता है, पहाड़ियों पर रास्ते हैं और ये मानो जलेबी के जैसे घुमावदार. आगे आता है सूईया पहाड़, यहाँ के पत्थर मानो सूई की तरह पाँवों में गड़ जाते हैं. पर बाबा के भक्तों को ऐसी कोई भी मुसीबत नहीं रोक नहीं सकती. पैरों में पड़े छाले, बहता खून भी मानॊं उनके उत्साह को डिगा नहीं पाता है. हरेक बाधा का और तेज हुँकार से काँवरिया जवाब देते हैं... बोल बम का नारा है.. बाबा एक सहारा है.
सूईया से कटोरिया, इनाराबरन, गोड़ियारी होते हुए काँवरिया बम आखिरकार पहुँच जाते हैं दर्शनियाँ. दर्शनियाँ आते ही बाबा के भक्तों की खुशी और उत्सह दूना हो जाता है क्योंकि यहाँ से ही बाबा के मंदिर की उपरी बाग नजर आने लग जाता है. काँवरियों का रेला सा उमड़ रहा है. हर तर्फ़ गेरुआ वस्त्रों में लिपटे बम ही दिखाई दे रहे है. अब बस एक ही किलोमीटर तो रह गया है बाबा का नगर. लो बाबाधाम तो हम आ पहुँचे हैं. पहले शिवगंगा में स्नान कर लें फ़िर लाईन में लग कर बाबा बैद्यनाथ को जल अर्पण करना है.
अहा! कितना मनोरम दृश्य है. बोल..बम हर हर महादेव , ऊँ नमः शिवाय की ध्वनि से चहुँलोक गुँजायमान हो रहा है. लोग बब के मंदिर की प्रदक्षिणा कर मंदिर में बाबा पर जलाभिषेक कर रहे है.
बाबा बैद्यनाथ की जय... हर हर.. बम बम..
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अभी बाबा का प्रसाद लेना तो बाकी ही है. चलें बाहर, देखें कितनी दुकाने सजी हुई हैं. यहाँ से उत्कृष्ट पेड़े, मकुनदाना और चूड़ा (चिवड़ा) प्रसाद के रूप में लें. गले में डालने के लिये मालायें( बद्धियाँ) लें, सुहागिनों के लिये सिंदूर भी ले लें.
अब जाकर हमारा संकल्प पूरा हुआ... अब सभी अपने अपने घरों की ओर प्रस्थान करें.
जय शिव शंभु!
11 comments:
ये जुनून ही कुछ और है--बहुत अच्छी पोस्ट लगी
वाह आपने तो यहाँ बाठे बहते भोले बाबा के दर्शन करवा दिए ..बहुत अच्छा लिखा है आपने
आपकी कल वाली पोस्ट भी आज ही पढ़ डाली ......हमारे शहर में इस दौरान छुट्टी हो जाती है ओर काम काज लगभग ठप्प..अजीब जनून है
काँवरिया कया सच मे भगत होते हे ?जिस तरह से यह आम लोगो से व्यवहार करते हे उस मे भक्ति तो बिलकुल नही दिखती,ओर जो इन की सेवा मे आंखे बिछाये रहते हे, इन के पावं दवाते हे, क्या वो अपने मां बाप की भी सेवा ऎसे ही करते होगे,
अजीत जी आप का धन्यवाद आज ओर कल की पोस्ट का, आप एक डा० हे आप क्या सोचते हे इन सब पाखंणो के बारे ? श्रधा ओर अंध बिश्वास मे फ़र्क होता हे
वाह बहुत ही बड़िया जानकारी दी। हमने तो सिर्फ़ अखबारों में कावरियां के बारे में पढ़ा था ये भी नहीं पता था कहां से आते हैं और कहां जाते हैं अब आप से पता लगा। धन्यवाद
आपने घर बैठे ही भोले बाबा के दर्शन करवा दिये.. बिल्कुल यूं लगा मानों आँखो के सामने कावड़िये जा रहे हों। पोस्ट अच्छी लगी।
राज भाटिया जी की टिप्प्णी भी कुछ हद तक सही है।
:)
दुनियाभर मेँ
हिन्दु धर्म की आस्था प्रसिध्ध है जिसका ये भी एक उदाहरण है..
-लावण्या
Doctor saab
Good article.
Tunde Tunde Matirbhinna!!
-Harshad Jangla
Atlanta, USA
ओह । बिन मांगे की सलाह जे है गुरू की डागदरी छोडिये और निकल पडिये देशाटन पर । हां एक कैमेरा साथ में लीजिये और हमारे लिए तस्वीरें ले आईये इस पूरी यात्रा की । जय शिव शंभो ।
श्रद्धा और विश्वास के पथ के मेरे पथिक साथियो,
आप ने अपना कीमती वक़्त यहाँ दिया मैं इसके लिये आपका शुक्रगुजार हूँ.
राज साहब, आपने बिलकुल सही कहा कि श्रद्धा और अंधविश्वास में फ़र्क होता है. पर लोगों की मति का क्या करें, वो अंधश्रद्धा करने लगते है. दुनिया में हरेक जगह वही बात लागू होती है - सिक्के के दो पहलू वाली बात. भक्ति और विश्वास तथा पाखंड इसी सिक्के के दो पहलू की तरह हैं.
यूनुस भाई, इस श्रावणी काँवरिया यात्रा से तो मेरी दिली यादें जुड़ी हुई हैं, उनका विवरण तो अगली पोस्ट में मैं करूंगा ही. यही कमी रह गयी कि अपने से खींची फ़ोटो आपसे share नहीं कर पा रहा हूँ. देशाटन की बात आपने कही है तो उसे भी जल्द ही blog पर लाऊँगा.
sir ji ,
aapki is post ne to mujhe is sawan maah me shiv ki aaradhana poori karwa di , kuch din pahle hi ujjain gaya hua tha , wahan se shivbhakti ki dhaara jo shuru hi to bus bahe jaa rahi hai .. itna accha lekh padwaane ke liye shukriya mitr.
aabhar
vijay
pls read my new poem "झील" on my poem blog " http://poemsofvijay.blogspot.com
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