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Monday, April 07, 2008

वो भूली दास्तां... लो फ़िर याद आ गई....

 

दोस्तो,

अभी तीन दिन पहले ही मैंने एक पोस्ट लिखी थी " आंगन की वो पहली किलकारी". इसमें आप रूबरू हुए मेरे उन बीते दिनों से, उन यादों से जो हम दोनों भाईयों ने मिल कर बांटी थी. चूंकि मेरा जन्मदिन था 4 अप्रैल को सो उसे ही केन्द्र में रख कर मैंने वो पोस्ट लिखी थी, सो आपने उसे सराहा भी और मुझे तथा मेरे छोटे भाई दोनों को जन्मदिन की ढेरों बधाइयां भी मिली. आप सबों को हमारी ओर से धन्यवाद.

आज जो पोस्ट मैं आपके लिये लेकर हाज़िर हुआ हूं वो भी मेरे जन्मदिन से ही जुड़ा हुआ है. अब आप कहेंगे कि बहुत हुआ, एक ही पोस्ट काफ़ी नहीं थी जो दूसरी भी ले आया सिर खाने के लिये. लेकिन हुज़ूर जरा रुकिये तो. अभी तो शेर मैने पढ़ा ही नहीं और आपने अंडों-टमाटरों की बरसात शुरु कर दी.

बात 8-10 साल पहले के उस समय की है जब मुझे प्यार का  बुख़ार नया नया ही उतरा था. जी हां! चढ़ा नहीं था. चढ़ा तो 1 साल पहले था. तो ज़नाब, जब प्यार का बुखार चढ़ा था तो कुछ और दिखता ही नहीं था. नाज़नीन हमारे किराये के घर के बाजू में ही रहती थीं. घंटों खिड़की से मुझे निहारना,जब मैं उन्हें देखूं तो शरमा जाना, अब साथ-साथ उन्हें पता नहीं क्यों शायरी लिखने का चस्का लग गया था. अब शायरी की प्रेरणा तो मैं ही रहा होउंगा क्योंकि प्रेम रस में पगी शायरी हुआ करती थी वो. अब नाज़ुक उमर थी तो ये सब होना लाजिमी था.

                                                प्यार

शायरी लिखी जातीं, डायरी हमारे पास आती. फ़रमाइश होती कि इन्हें पूरा किया जाये. हम ख़ुशी ख़ुशी पंक्तियां जोड़ते जाते. मोहतरमा कहतीं- क्या ख़ूब लिखा है. हम मन ही मन दोहरे हुए जाते. पता नहीं कहाँ से दिमाग के घॊड़े भी खूब दौड़ते.अपने पढ़ने के वक़्त ये घोड़े कहाँ घास चरने लगते मालूम ही नहीं चलता था. उन अधूरी शायरी और उन पंक्तियों के दर्शन फ़िर कभी.

इन्हीं नैन मटक्कों में हम सोचते कि हमने दुनिया जहान पा लिया है. उन्हीं दिनों एक पत्र ( जी हां प्रेम पत्र) उन्होंने मुझे डायरी में डाल कर दिया. मैं तो सातवें आसमान पर पहुँच गया. अब ये मत पूछ लीजियेगा कि उसमें लिखा क्या था.अब यदि मैंने बता दिया तो उनकी सुद्ध -सुद्ध हीन्दी से आप परिचित हो जायेंगे जो मुझे अच्छा नहीं लगेगा. हाँ, तो मैने भी उस प्रेम पत्र का जवाब दिया. फ़िर तो सिलसिला ही चल निकला. बात हाथों में हाथ डाल कर बैठने तक की भी आ गयी थी. नयी उमर थी, सबकुछ अच्छा ही लग रहा था. उनके जन्मदिन पर एक खू़बसूरत सा लैंडस्केप और एक table piece मैने दिया था. valentine day के दिन एक सुर्ख गुलाब की खिलती कली भेंट की थी.

दिन गुजरते मेरा जन्मदिन भी आ पहुँचा,जैसे इस बार आया था. हुज़ूर नें एक कलम सेट भेंट की थी. मैने उस समय सोचा था जब मेरा सेलेक्शन मैडीकल में होगा और उसके 5 साल बाद जब पहली बार मरीज का पहला पुर्ज़ा लिखूंगा तो इसी pen से. वो समय था और मरीज़ देखने के वक़्त आज का समय, पता नहीं वो कलम सेट कहाँ होगा. कुछ सालों तक सहेज कर रखा जरूर था.

ख़ैर, समय गुज़रा. हमलोग दूसरे मकान में आ गये. नैन मटक्के छूट गये. शायरी छूट गय़ी. मिलना ना हो सका तो ये नाज़ुक सा दिल जिसने पहली पहली बार प्यार की सच्ची अनुभूति की थी,टूट गया. पता चला कि साल दो साल गुजरते मोहतरमा ने किसी और को पसंद कर लिया, हाँ अब वो ब्याहता हो गयीं थीं. इस बात ने दिल के दर्द को और थोड़ा बढ़ा दिया.

मेरा जन्मदिन फ़िर आया, ठीक उसी तरह जैसा कि इस बार आया था और उस बार आया था. अपने रूम में अकेला था. घर के सभी सदस्यों के बधाई संदेश को मैं बगल के घर के telephone पर सुन आया था( तब mobile मेरे लिये तो दूर की कौड़ी था). Birthday cards आया करते थे तब, पर मेरे लिये तो एक भी नहीं आया था इस बार. सोच कर परेशान हो रहा था. उनके card या फ़ोन का इंतज़ार कर रहा था. सोचा शाम तक तो आ ही जायेगा. शाम हो गयी, रात गहराने लगी पर उन बधाई संदेशों के अलावा कहीं से कुछ नहीं. दिल में कुछ टूटता सा प्रतीत हुआ. शायद जो बचा खुचा था वो भी चकनाचूर हो रहा था.

                                               मैं अकेला

नहीं रहा गया. अपनी शायरी करने के दिनों को याद किया. सोचा कुछ उल्टा सीधा लिखा जाय. कुछ दर्द तो बाहर निकले. आप भी पढ़ें. अब यदि अंडे-टमाटर फ़ेकें तो सब बर्दाश्त कर लूंगा, सब झेल लूंगा.

                                                        "मैं अकेला"

वो था मेरा जन्मदिन, है आज वही फ़िर आया.
पर किसी की बधाई,मैं कहाँ सुन पाया.
         शायद सब व्यस्त हों,
         कार्य उनके अनंत हो.
फ़ुर्सत के क्षण कुछ तो होंगे,
क्या तब भी उन्हें मैं याद ना आया.

उस दिन भी था मैं रोया, आज पड़ा मुझे फ़िर रोना.
दिन बीता पर स्नेह ना पाया, आज ये मैंने जाना.......
        जो दम भरते हैं प्यार का,
        खुद रीते हैं प्यार के.
        औरों को क्या बांट सकेंगे,
        जो खुद भूखे उपहार के.

उपहार मिला था प्यार का मेरे जन्म दिवस पर,
है वही दिन आज भी पर, हैं वो गैर की बाहों में.
क्यूं छोड़ा हमें आपने य़ूँ सिसकती राहों में//

कहने के हैं दोस्त सभी, है कोई नहीं अब पूछने वाला,
अकेला आया था धरा पर, हूँ आज मैं फ़िर वहीं अकेला..

Friday, April 04, 2008

आंगन की वो पहली किलकारी

 

माँ-पिता की शादी के तीन - साढ़े तीन साल गुज़र चुके थे. गाँव की बड़ी-बूढ़ी औरतों के बीच कानाफ़ूसियां शुरू हो चुकी थीं. माँ की गोद अब तक हरी नहीं हुई थी. पति पत्नी अपनी विदुषी माँ/सास के कहे अनुसार दवाओं और दुआओं दोनों से आस लगाये हुए थे.

अंततः "माँ तेलडीहा" का आशीर्वाद फ़लीभूत हुआ और उन व्यथित मनों को 5 साल पूरा होते होते सुकून मिला जब उनके आंगन में पहली किलकारी गूंजी थी. तारीख थी यही आज की तारीख यानी 4 अप्रैल. बच्चा बढ़ने लगा. पिता की नौकरी भी लग गयी थी, घर से दूर हो गये थे. पर हफ़्ते - पन्द्रह दिनों पर जब भी घर आते अपना सारा प्यार लुटा जाते. लोग कहते, इ त रोजे बढ़ै छौं हो( ये तो रोज ही बढ़ता जा रहा है). माँ-दादी अपने आँचल में अपने लाडले को छुपा लेतीं.

                                           प्यार की पींग

अपने गोद में लेकर पिता उसे महापुरुषों की कहानियां सुनाते. उसे लेकर अपने खेतों पर चले जाते, मेड़ों पर चलते हुए कहते ... बेटा, कहो... क, ख, ग,......A, B,C,D.... 1,2,3.....

पिता office चले जाते, अपनी जिम्मेदारियां अपनी और बच्चे की माँ पर छोड़ जाते. विदुषी दादी बच्चे को रामायण और महाभारत की कहानियाँ सुनाया करतीं.

                                           हमारी प्यारी मम्मी

पर बच्चा तो बच्चा था, गाँव के शैतान बच्चों के साथ ने उसे बिगाड़ने की भरपूर कोशिश की थी... कुछ हद तक सफ़ल भी हुआ. पर पिता के घर के नजदीक हुए तबादले ने उन गलत मंसूबों को कामयाब नहीं होने दिया.

4 साल के होते न होते 27 मार्च को बच्चे के छोटे भाई ने भी अपना अस्तित्व जाहिर कर दिया था. एक खिलौना उसे मिल गया था. इस नये बच्चे की बढ़वार कम थी, हमेशा गुमसुम सा एक जगह बैठा रहता, अपने में कुछ खेलता रहता. अब किसी को क्या पता था कि सब से ज्यादा नहीं बोलने वाला ये छोटा सा लड़का आगे चलकर एक सफ़ल इंजीनियर बनने जा रहा है और शायद IIM के कठिन interview को पार कर एक सफ़ल मैनेजर भी बन जायेगा.  हां कद का भी और बोलचाल का भी छोटा नहीं रहा वो छोटा भाई.

                                          टूटू

वो छोटा सा बच्चा अपने छोटे भाई को बहुत प्यार करता था, करता है और सदा करता रहेगा.

जब तक छोटा भाई स्कूल जाने के लायक नहीं हुआ था तब तक पिता सिर्फ़ बड़े को ही लेकर अपनी सायकिल पर कभी आगे कभी पीछे बैठा कर स्कूल ले जाते, शाम को दफ़्तर से आते वक़्त उसे फ़िर स्कूल से घर ले आते. जाते आते अंग्रेजी के अनेक शब्दों के अर्थ बच्चे को याद कराते जाते, कभी पिछला शब्द भूल जाने पर एक जोरों की डांट और कभी एक चांटा भी रसीद कर दिया करते उसी तरह सायकिल चलाते हुए ही. पर फ़िर उसी शाम को बारी आती किसी प्रेरक प्रसंग की.

........ चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण.
ऐते पर सुल्तान है, मत चूको चौहान.

                                             Papajee

भाई स्कूल जाने के लायक हुआ, पिता दोनो को अपनी उसी साइकिल पर आगे पीछे बैठा कर स्कूल ले गये. माँ ने छोटे के लिये कपड़े का एक बैग बना कर दे दिया था. शाम को पिता के दफ़्तर से लौटकर आने में देर हो गयी. तीन बजे स्कूल समाप्त होता तो पिता पाँच बजे तक भी नहीं आये. बड़ा भाई छोटे को समझा रहा था. पर तभी स्कूल में रहने वाली कुछ लड़कियों ने कह दिया कि अब पिता नहीं आयेंगे. थोड़े आंसू बड़े की आंखों में भी आ गये पर छोटा देख नहीं पाया. शाम ढलती जा रही थी. घर से स्कूल बहुत दूर है, चलो टूटू( हां, छोटे का नाम यही है) पैदल ही चलते हैं.

बच्चे का पहला दिन और उसे बड़ा भाई पैदल ही चला कर घर लिये जा रहा है. बीच-बीच में पीछे भी देख रहा है , पिता तो नहीं आ रहे. पर नहीं. पिता ने सिखाया है पैदल रोड पर नहीं चलना, गाड़ियां आती जाती रहती हैं. सो, किनारे किनारे दोनों चले जा रहे हैं. छोटा भी उसी उत्साह से चल रहा है. कभी पत्थरों पर पैर पड़ता है तो बच्चा गिर जाता है , बड़ा उसे सम्हालता है. बच्चा गिर जाता है , बड़ा उसे फ़िर सम्हालता है. इस तरह दोनो बच्चे गिरते सम्हलते , एक दूसरे को ढाढ़स बंधाते उस 6 km की दूरी तय कर घर पहुँच जाते हैं. दादी और मम्मी दोनों की करुण गाथा सुनकर उन्हें अपनी छाती से चिपका लेती हैं. 10 मिनट बाद पिता घर पहुँचते हैं और कहानी सुनकर अपना भी माथा पीट लेते हैं.

आज 4 अप्रैल है, वो दिन जिसे मैं कभी नहीं भुला सकता. जिस बड़े बच्चे को आपने देखा वो मैं ही हूं और वो छोटा भाई सुजीत कुमार, IIT ROORKEE से pass out , फ़िलहाल रक्षा मंत्रालय के BHARAT ELEC में कार्यरत और IIM तथा XLRI के interview  के बाद results की प्रतीक्षा में है.

27 march पिछले दिनॊं गुज़र गया और मैं सोचता ही रह गया कि एक पोस्ट अपने प्यारे भाई के लिये लिखूंगा. अच्छा जब शुरुआत की है तो आगे मंजिलें और भी हैं. अगर मैं आगे नहीं लिखूंगा तो हमारी वो छोटी सी बहन भी तो नाराज़ हो जायेगी कि मेरे बारे में नहीं लिखा.

                                          पापा-गुड़िया

खैर, आज अपने जन्मदिन पर मैं अपने तीनों भाई बहन की ओर से अपने प्यारे मम्मी पापा को ये गाना समर्पित करता हूँ. आपने जिस पथ की हमें राह दिखाई हम उस पर अपने क़दम बढ़ा रहे हैं. जिस तरह आज तक आप लोगों का आशीष हम पर है वो इसी तरह हमपर हमेशा बरसता रहे.

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