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Thursday, December 04, 2008

अब मेरी बारी है.........

आज कई दिनों की खामोशी के बाद फिर आपसे रूबरू हो रहा हूँ। वक़्त के थपेड़ों के साथ चलते हुए कब साल दर साल गुजर जाते हैं पता ही नहीं चलता। हम अपने आप में मसरूफ़ होते चले जाते हैं। स्थितियां कुछ ऐसी बदलती हैं कि हमें अपने शौक से भी मुँह मोड़ लेना पड़ता है,चाहे थोड़ी देर के लिये ही सही.पर आज मैं आपके सामने उपस्थित हुआ हूँ तो मैं अपनी बात आपसे share नहीं करने जा रहा हूँ.
बात है एक टेक्नोक्रैट के दिल की... एक भावी कुशल प्रबंधक की...
जी हाँ! मैं बात कर रहा हूँ " भारतीय प्रबंध संस्थान(IIM ), कोझीकोड, केरल" में पढ़ने वाले मेरे छोटे भाई की. भारतीय तकनीकी संस्थान(IIT),रूड़की से विद्युत अभियांत्रिकी में स्नातक मेरा छोटा भाई ’सुजीत कुमार’... जिसके बारे मैं आप पहले भी मेरी इस पोस्ट में पढ़ चुके हैं...


मुँबई की वो दहशत भरी रात ने सभी के दिलो दिमाग को मथ दिया। इन्हीं पलों में कुछ पंक्तियाँ सुजीत के दिल से निकली होंगी जिसे उसने अपने ब्लॉग पर डाला है. आप भी पढ़ें...
मुझे डर लगता है.
कल से फैला है सन्नाटा है हर तरफ़.
कोई भी मरा नही है
पता नही मुझे क्यूँ लगता है
अब मेरी बारी है...
(पूरी कविता के लिये ऊपर की पंक्तियों पर क्लिक करें..)

Monday, August 04, 2008

चलें बाबा के द्वार... चलें देवघर नगरिया.. बोल - बम !

जय शिव शंकर!
दोस्तो,
यदि आपने मेरी कल की पोस्ट पढ़ी होगी, तो आप ने देखा होगा कि मैने एक बात शुरुआत में ही लिखी थी.. "......... पता नहीं कितने रूपों में सावन हमारे आस पास बिखरा पड़ रहा है. हर कोई अपने अपने तरीके से इसे समेटने में लगा है. ........आशा है हमेशा की तरह एक बार फ़िर आप मेरे साथ यादों के सफ़र के हमराह होंगे."

मैं झारखंड राज्य स्थित देवघर में अवस्थित बाबा भोलेनाथ के ज्योतिर्लिंग स्वरूप बाबा बैद्यनाथ, बाबा रावणेश्वर के बारे में चर्चा कर रहा था. आपने देखा कि किस तरह बाबा के इस स्वरूप की स्थापना हुई. आज तीसरी श्रावणी सोमवारी के पावन अवसर पर मैं आपको ले चल रहा हूँ इसी काँवरिया मार्ग  पर जिसपर चलकर भक्तगण 105 km का दुरूह सफ़र पैदल तय करते हैं. और इसी से जुड़ी मेरी वो बचपन की यादें, जिनका हमराह मैं आपको बनाना चाह रहा हूँ. आशा है मेरे वे बिछड़े साथी जो दो महीने पहले मेरी blog यात्रा के रुकने पर मुझसे दूर हो गये थे फ़िर आ मिलेंगे.

बहरहाल मैं बात कर रहा था काँवरिया भक्तों की. भक्तगण दूर दूर के प्रदेशों से विभिन्न साधनों के द्वारा पहले सुलतानगंज पहुँचते हैं. सुल्तानगंज, बिहार राज्य के भागलपुर जिले में स्थित एक छोटा सा शहर है. जो देश से सड़क और रेल मार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है. यहीं बहती है उत्तरवाहिनी गंगा. यहाँ इस पतित पावनी उत्तरवाहिनी गंगा का अपना एक विशेष महत्व है. कहते हैं, भगवान राम ने यहीं काँवरिया वेश में गंगाजल भरकर पैदल राह तय कर बाबा बैद्यनाथ को जल अर्पण किया था. काँवर उठा कर ले जाने की प्रथा तभी से शुरू मानी जाती है.

                                                   India Kanwarias Walk

उत्तरवाहिनी गंगा के तट पर पंडे श्रद्धालु भक्तों को संकल्प कराते हैं, श्रद्धालु पात्रों में जल भरते हैं और कंधे पर काँवर रख कर आकाश गुँजित उदघोष करते हैं - "बोल बम" और रवाना हो जाते हैं एक भक्तिमय लंबे पथ पर जिसपर लगभग तीन दिनों के सफ़र बाद वो मंजिल आनी है जब बाबा के दर्शन होंगे, एक संकल्प पूरा होगा. पूरे सावन महीने तक रोज लाखों की तादाद में काँवरियों का जत्था यहाँ से बाबा नगरी के लिये प्रस्थान करता है. एक दूसरे का उत्साह बढ़ाते काँवरिया चलते जाते हैं, बढ़ते जाते हैं. अगर मैं कहूँ कि काँवरिया नहीं चलते वरन काँवरियों का एक रेला सा चलता है तो ज्यादा सटीक होगा. दूर तक जहाँ तक भी नज़र जायेगी सिर्फ़ गेरुआ रंग की एक कतार सी ही दिखेगी पूरे काँवरिया पथ में.

बोल बम.. बोल बम. बोल बम.. बोल बम.
बाबा नगरिया दूर है, जाना जरूर है.. भैया बम, बोलो बम, माता बम बोलो बम, चाची बम , बोलो बम.
सारे काँवरिया एक दूसरे को बम कह कर संबोधित करते है.नाचते गाते काँवरिया आगे की ओर बढ़ते जाते हैं.

इस 105 किमी के सफ़र में कई पड़ाव आते हैं जब काँवरिया रुकते हैं, सुस्ताते हैं, अपनी थकान मिटाते हैं.सुल्तानगंज से लेकर बाबाधाम तक काँवरिया पथ के दोनों ओर खाने पीने की स्थाई और अनगिनत अस्थाई दुकाने हर कदम पर आपको मिलेंगी. अब इन दुकानों में खाने की क्वालिटी पर बहस हो तो वो एक अलग मुद्दा हो जायेगा. जगह जगह medical camp भी लगे होते हैं. थॊड़ी देर इनकी सेवायें लेने के बाद निकल पड़ते हैं आगे के सफ़र पर बोल बम की गुंजायमान उदघोष के साथ.  इन्हीं कई पड़ावों में एक पड़ाव है " तारापुर" जहाँ का आपका यह दोस्त रहने वाला है. सुलतानगंज के बाद मुख्य पडावों मे हैं- मासूमगंज, असरगंज, रणग्राम और तब तारापुर. लगभग 20 किमी के बाद यह पड़ाव आता है तो अधिकतर काँवरिया यहीं रुकना पसंद करते हैं. तारापुर की आँखों देखी विवरणी मैं अपने अगले पोस्ट में दूंगा जब आप मेरे साथ पूरे तारापुर के काँवरिया पथ का सजीव वर्णन आपके सामने रखूंगा. फ़िलहाल आगे चलें...

तारापुर के बाद 7 किमी पर आता है रामपुर, एक दूसरा अति महत्वपूर्ण पड़ाव. यहा लगभग सभी काँवरिया रुकते हैं क्यूँकि अधिकतर काँवरियों के लिये यहाँ लगभग रात हो जाती है और आगे का सफ़र थोड़ा मुश्किल भरा हो जाता है.

दूसरे दिन सवेरे उठकर नित्य क्रिया से निवृत हो अपने काँवर पुन: कंधे पर टांग कर बम आगे की ओर निकल पड़ते हैं. यह भी नियम है कि काँवर को पूरे सफ़र के दौरान कभी भूमि स्पर्श नहीं होने देना है,सो काँवर को विश्र्ष प्रकार के बनाये गये stands पर ही रखा जाता है. इस दौरान कुत्ते अर्थात भैरो बम का स्पर्श भी वर्जित है सो सारे बम उससे बचते हुए चलते है. जब भी काँवर अपने स्थान से पुनः उठाया जाता है तो पहले पाँच बार कान पकड़ कर उठक बैठक लगाना भी अनिवार्य है. पूरे यात्रा के दौरान श्रृंगार प्रसाधनों का उपयोग भी वर्जित है.विशुद्ध शाकाहारी भोजन करते हुए और इन सारे कठिन नियमों का पालन करते हुए लोग बाबा के दरबार पहुँचते हैं.

रामपुर के बाद आता है कुमरसार फ़िर जिलेबिया मोड़. कुमरसार से आगे बढ़ते ही एक नदी पार करनी होती है, कभी कभी नदी का बहाव इतना तेज होता है कि सारे काँवरिया एक दूसरे को पकड़ कर चलने को बाध्य होते है. जिलेबिया मोड़, जैसा नाम से ही प्रतीत होता है, पहाड़ियों पर रास्ते हैं और ये मानो जलेबी के जैसे घुमावदार. आगे आता है सूईया पहाड़, यहाँ के पत्थर मानो सूई की तरह पाँवों में गड़ जाते हैं. पर बाबा के भक्तों को ऐसी कोई भी मुसीबत नहीं रोक नहीं सकती. पैरों में पड़े छाले, बहता खून भी मानॊं उनके उत्साह को डिगा नहीं पाता है. हरेक बाधा का और तेज हुँकार से काँवरिया जवाब देते हैं... बोल बम का नारा है.. बाबा एक सहारा है.

सूईया से कटोरिया, इनाराबरन, गोड़ियारी होते हुए काँवरिया बम आखिरकार पहुँच जाते हैं दर्शनियाँ. दर्शनियाँ आते ही बाबा के भक्तों की खुशी और उत्सह दूना हो जाता है क्योंकि यहाँ से ही बाबा के मंदिर की उपरी बाग नजर आने लग जाता है.  काँवरियों का रेला सा उमड़ रहा है. हर तर्फ़ गेरुआ वस्त्रों में लिपटे बम ही दिखाई दे रहे है. अब बस एक ही किलोमीटर तो रह गया है बाबा का नगर. लो बाबाधाम तो हम आ पहुँचे हैं. पहले शिवगंगा में स्नान कर लें फ़िर लाईन में लग कर बाबा बैद्यनाथ को जल अर्पण करना है.

                                         deoghar_temple2

अहा! कितना मनोरम दृश्य है. बोल..बम हर हर महादेव , ऊँ नमः शिवाय की ध्वनि से चहुँलोक गुँजायमान हो रहा है. लोग बब के मंदिर की प्रदक्षिणा कर मंदिर में बाबा पर जलाभिषेक कर रहे है.

बाबा बैद्यनाथ की जय... हर हर.. बम बम..

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अभी बाबा का प्रसाद लेना तो बाकी ही है. चलें बाहर, देखें कितनी दुकाने सजी हुई हैं. यहाँ से उत्कृष्ट पेड़े, मकुनदाना और चूड़ा (चिवड़ा) प्रसाद के रूप में लें. गले में डालने के लिये मालायें( बद्धियाँ) लें, सुहागिनों के लिये सिंदूर भी ले लें.
अब जाकर हमारा संकल्प पूरा हुआ... अब सभी अपने अपने घरों की ओर प्रस्थान करें.
जय शिव शंभु!

Sunday, August 03, 2008

सावन का पावन महीना और भगवान भोलेनाथ के द्वारे जाते काँवरिया.....

आजकल सावन का  महीना चल रहा है और बारिश की फ़ुहारें हम सभी को दिलो दिमाग तक भिगोये जा रही हैं. कहीं सावन के झूले पड़ रहे हैं तो कहीं सावन के बादलों को विकलता से पुकारा जा रहा है. कहीं सावन का गुणगाण किसी शेरो शायरी से किया जा रहा है तो कहीं सावन से किसी को कई गिले शिकवे हैं. कहीं गाड़ी में गुलाम अली साहब सावन की गज़ल गा रहे हैं तो कहीं ज़िला खाँ सावन को अपने सुरों में सजा रही हैं.

....... पता नहीं कितने रूपों में सावन हमारे आस पास बिखरा पड़ रहा है. हर कोई अपने अपने तरीके से इसे समेटने में लगा है. तो मैने सोचा कि मैं सावन के किस रूप को अपने दामन में भर लूँ. ज्यादा सोचने की जरूरत ही नहीं पड़ी क्यूंकि सावन से जुड़ी बहुत ही आस्थापूर्ण याद मेरे जेहन में बसी है और आज मैं उसी याद को आपसे बाँटना चाह रहा हूँ, आशा है हमेशा की तरह एक बार फ़िर आप मेरे साथ यादों के सफ़र के हमराह होंगे.

                                             shiva2

हमारे साथियों को पता ही होगा कि झारखंड राज्य स्थित देवघर में भगवान शिव का अति प्राचीन मंदिर है जहाँ देश (और यहाँ तक कि विदेशों से भी) के कोने कोने से लोग आकर शिवलिंग पर गंगा जलाभिषेक करते हैं. भगवान भोले शंकर यहाँ बाबा बैद्यनाथ के नाम से विराजते हैं. इसी कारण देवघर को बाबा बैद्यनाथ धाम या बाबाधाम के नाम से भी जाना जाता है. बाबा भोले नाथ यहाँ भगवान रावणेश्वर के नाम से भी ख्यातिनाम हैं. इन नामों के  पीछे भी कथाएँ प्रचलित हैं.

                                              temple1

प्राचीन कथा यह है कि जब लंकाधिपति रावण को यह लगा कि भगवान शिव के लँका में प्रतिस्थापित हो जाने से उसका राज्य बिल्कुल सुरक्षित हो जायेगा तो उसने कैलाश पर्वत पर तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न कर लिया और भोलेनाथ ने अपने शिवलिंग को उसे दे दिया पर साथ ये भी निर्देश दिया किया कि अगर लँका से पहले किसी भी जगह इस शिवलिंग को जमीन पर रखा तो वह वहीं स्थपित हो जायेगा और फ़िर उसे ले जाना संभव नहीं रहेगा.  देवताओं में चिंता बढ़ गयी. उन्होंने वरुण देव से आग्रह किया और रावण को तीव्र लघुशंका हुई. उसने शिवलिंग को जमीन पर रख दिया और लघुशंका करने लगा. इस तरह शिवलिंग देवघर में उसी स्थान पर प्रतिष्ठित हो गया. इस तरह रावणेश्वर नाम से भगवान जाने गये. कालांतर में बैद्यनाथ नाम के एक भील ने इसे पूजा जिससे यह बैद्यनाथ धाम के नाम से भी जाना गया, ऐसा माना जाता है.

बाबा बैद्यनाथ का यह शिवलिंग द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक ज्योतिर्लिंग है. शिव महापुराण में वर्णित द्वादश ज्योतिर्लिंग का विवरण इस प्रकार है..

सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम् । उज्जयिन्यां महाकालमोड्कारममलेश्वरम् ॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशड्करम् । सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने ॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे । हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये ॥
एतानि ज्योतिर्लिड्गानि सायंप्रातः पठेन्नरः । सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति ॥

ऐसी मान्यता है कि अगर उत्तरवाहिनी गंगा से जल लाकर बाबा के ज्योतिर्लिंग का जलाभिषेक किया जाये तो बाबा विशेष प्रसन्न होते हैं और उनकी कृपा हमेशा भक्त पर बनी रहती है. सो प्रत्येक सावन के महीने में बाबा के भक्त देश और विदेशों के कोने कोने से आते हैं , सुल्तानगंज में उत्तरवाहिनी गंगा में पवित्र स्नान करते हैं, अपने पात्रों में जल लेते हैं और काँवर कांधे पर टांग कर रवाना हो जाते हैं बाबा भोले नाथ के द्वारे अपनी भक्ति निवेदित करने, अपने लाये जल को बाबा को समर्पित करने.

शिवभक्त काँवरिया उत्तरवाहिनी गंगा, सुलतानगंज से बाबाधाम,देवघर तक का 105 km का दुरूह सफ़र पैदल ही नंगे पाँव तय करते हैं. बोल बम- बोल बम, ऊँ नमः शिवाय का रट लगाते काँवरिया एक दूसरे को साहस दिलाते बढ़ते जाते हैं......

आइये बाबा का भजन करें..

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भक्ति का ये सफ़र कल भी जारी रहेगा. चूँकि ये सफ़र बहुत लंबा है सो आप सब आशा है भगवान शिव की की आराधना में सावन के तीसरे सोमवार को भी साथ रहेंगे. श्रावणी सोमवारी बाबा को विशेष प्रिय है और हम अपनी आराधना पूरी करेंगे..... जय बाबा बैद्यनाथ.

Wednesday, May 07, 2008

विवशता

                                      weak

कमजोर,
कातर नेत्रों से ताकती हुई.
गिन रही थी,
दो चार पल
जिंदगी के.
गुन रही थी,
हुई क्या उससे ख़ता.
बूचड़खाने
कटने खड़ी थी.
क्या थी उसकी विवशता?

( 5th Feb. 1994)

Sunday, May 04, 2008

चौदह साल पुरानी पर अभी भी उतनी ही प्रासंगिक

बीते चौदह सालों में काफ़ी कुछ बदल जाता है. हमारे जीवन में, हमारे आसपास एक अलग दुनिया नज़र आने लगती है. स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे ख़ुद बाल बच्चेदार हो जाते हैं, उस समय के युवा प्रौढ़ता की ओर अग्रसर होने लगते हैं. युवाओं की जिम्मेदारियाँ बढ़ने लगती है.

पर, आज भी जो समस्या उसी रूप में हमारे सामने मुँह बाये खड़ी है वो है प्रदूषण की समस्या. शायद उसी स्थिति में और विकट होकर हमारे सामने प्रकट है.

1994 में स्कूल में पढ़ने वाले एक विद्यार्थी को उस समय के अख़बारों में आने वाली खबरें उद्वेलित करती रहती थीं. प्रदूषण.. प्रदूषण... और प्रदूषण.

                                         pollution2

इन्हीं सारी ख़बरों को पढ़ सुन कर मेरे मन में कुछ लिखने का ख़याल आने लगा था, जिसे अपनी तुकबंदी के जरिये मैनें कागज़ पर उतारा था. आईये पढ़े उस समय लिखी मेरी वही कविता जिसे मैंने जिस तरह उस समय कागज़ पर लिखा था वैसे ही अभी छाप रहा हूँ.

                                                                प्रदूषण

इस जमाने में,
कब साँस बंद हो जाये,
सोच रहे हैं जन जन.
             क्योंकि विकराल रूप में
             पाँव पसार रहा है प्रदूषण.
मानवों के
विकृत मन को भाँपकर,
आठ आठ आँसू
बहा रहा है कण कण.
हरियाली नष्ट हो रही है,
बड़ी तादाद में
उजड़ रहे हैं वन वन.
              क्योंकि विकराल रूप में
              पाँव पसार रहा है प्रदूषण.
गुबार
उड़ रहे हैं धुयें के,
नरक
बन रहा है अब चमन.
बादल
गरज रहे हैं घन घन,
पर पानी की जगह
तेजा़ब
बरस रहा है क्षण क्षण.
             क्योंकि विकराल रूप में
             पाँव पसार रहा है प्रदूषण.
धरती पर
रहना दूभर है सो,
गगन में
बन रहे हैं अब भवन.
              क्योंकि विकराल रूप में
              पाँव पसार रहा है प्रदूषण.

Monday, April 07, 2008

वो भूली दास्तां... लो फ़िर याद आ गई....

 

दोस्तो,

अभी तीन दिन पहले ही मैंने एक पोस्ट लिखी थी " आंगन की वो पहली किलकारी". इसमें आप रूबरू हुए मेरे उन बीते दिनों से, उन यादों से जो हम दोनों भाईयों ने मिल कर बांटी थी. चूंकि मेरा जन्मदिन था 4 अप्रैल को सो उसे ही केन्द्र में रख कर मैंने वो पोस्ट लिखी थी, सो आपने उसे सराहा भी और मुझे तथा मेरे छोटे भाई दोनों को जन्मदिन की ढेरों बधाइयां भी मिली. आप सबों को हमारी ओर से धन्यवाद.

आज जो पोस्ट मैं आपके लिये लेकर हाज़िर हुआ हूं वो भी मेरे जन्मदिन से ही जुड़ा हुआ है. अब आप कहेंगे कि बहुत हुआ, एक ही पोस्ट काफ़ी नहीं थी जो दूसरी भी ले आया सिर खाने के लिये. लेकिन हुज़ूर जरा रुकिये तो. अभी तो शेर मैने पढ़ा ही नहीं और आपने अंडों-टमाटरों की बरसात शुरु कर दी.

बात 8-10 साल पहले के उस समय की है जब मुझे प्यार का  बुख़ार नया नया ही उतरा था. जी हां! चढ़ा नहीं था. चढ़ा तो 1 साल पहले था. तो ज़नाब, जब प्यार का बुखार चढ़ा था तो कुछ और दिखता ही नहीं था. नाज़नीन हमारे किराये के घर के बाजू में ही रहती थीं. घंटों खिड़की से मुझे निहारना,जब मैं उन्हें देखूं तो शरमा जाना, अब साथ-साथ उन्हें पता नहीं क्यों शायरी लिखने का चस्का लग गया था. अब शायरी की प्रेरणा तो मैं ही रहा होउंगा क्योंकि प्रेम रस में पगी शायरी हुआ करती थी वो. अब नाज़ुक उमर थी तो ये सब होना लाजिमी था.

                                                प्यार

शायरी लिखी जातीं, डायरी हमारे पास आती. फ़रमाइश होती कि इन्हें पूरा किया जाये. हम ख़ुशी ख़ुशी पंक्तियां जोड़ते जाते. मोहतरमा कहतीं- क्या ख़ूब लिखा है. हम मन ही मन दोहरे हुए जाते. पता नहीं कहाँ से दिमाग के घॊड़े भी खूब दौड़ते.अपने पढ़ने के वक़्त ये घोड़े कहाँ घास चरने लगते मालूम ही नहीं चलता था. उन अधूरी शायरी और उन पंक्तियों के दर्शन फ़िर कभी.

इन्हीं नैन मटक्कों में हम सोचते कि हमने दुनिया जहान पा लिया है. उन्हीं दिनों एक पत्र ( जी हां प्रेम पत्र) उन्होंने मुझे डायरी में डाल कर दिया. मैं तो सातवें आसमान पर पहुँच गया. अब ये मत पूछ लीजियेगा कि उसमें लिखा क्या था.अब यदि मैंने बता दिया तो उनकी सुद्ध -सुद्ध हीन्दी से आप परिचित हो जायेंगे जो मुझे अच्छा नहीं लगेगा. हाँ, तो मैने भी उस प्रेम पत्र का जवाब दिया. फ़िर तो सिलसिला ही चल निकला. बात हाथों में हाथ डाल कर बैठने तक की भी आ गयी थी. नयी उमर थी, सबकुछ अच्छा ही लग रहा था. उनके जन्मदिन पर एक खू़बसूरत सा लैंडस्केप और एक table piece मैने दिया था. valentine day के दिन एक सुर्ख गुलाब की खिलती कली भेंट की थी.

दिन गुजरते मेरा जन्मदिन भी आ पहुँचा,जैसे इस बार आया था. हुज़ूर नें एक कलम सेट भेंट की थी. मैने उस समय सोचा था जब मेरा सेलेक्शन मैडीकल में होगा और उसके 5 साल बाद जब पहली बार मरीज का पहला पुर्ज़ा लिखूंगा तो इसी pen से. वो समय था और मरीज़ देखने के वक़्त आज का समय, पता नहीं वो कलम सेट कहाँ होगा. कुछ सालों तक सहेज कर रखा जरूर था.

ख़ैर, समय गुज़रा. हमलोग दूसरे मकान में आ गये. नैन मटक्के छूट गये. शायरी छूट गय़ी. मिलना ना हो सका तो ये नाज़ुक सा दिल जिसने पहली पहली बार प्यार की सच्ची अनुभूति की थी,टूट गया. पता चला कि साल दो साल गुजरते मोहतरमा ने किसी और को पसंद कर लिया, हाँ अब वो ब्याहता हो गयीं थीं. इस बात ने दिल के दर्द को और थोड़ा बढ़ा दिया.

मेरा जन्मदिन फ़िर आया, ठीक उसी तरह जैसा कि इस बार आया था और उस बार आया था. अपने रूम में अकेला था. घर के सभी सदस्यों के बधाई संदेश को मैं बगल के घर के telephone पर सुन आया था( तब mobile मेरे लिये तो दूर की कौड़ी था). Birthday cards आया करते थे तब, पर मेरे लिये तो एक भी नहीं आया था इस बार. सोच कर परेशान हो रहा था. उनके card या फ़ोन का इंतज़ार कर रहा था. सोचा शाम तक तो आ ही जायेगा. शाम हो गयी, रात गहराने लगी पर उन बधाई संदेशों के अलावा कहीं से कुछ नहीं. दिल में कुछ टूटता सा प्रतीत हुआ. शायद जो बचा खुचा था वो भी चकनाचूर हो रहा था.

                                               मैं अकेला

नहीं रहा गया. अपनी शायरी करने के दिनों को याद किया. सोचा कुछ उल्टा सीधा लिखा जाय. कुछ दर्द तो बाहर निकले. आप भी पढ़ें. अब यदि अंडे-टमाटर फ़ेकें तो सब बर्दाश्त कर लूंगा, सब झेल लूंगा.

                                                        "मैं अकेला"

वो था मेरा जन्मदिन, है आज वही फ़िर आया.
पर किसी की बधाई,मैं कहाँ सुन पाया.
         शायद सब व्यस्त हों,
         कार्य उनके अनंत हो.
फ़ुर्सत के क्षण कुछ तो होंगे,
क्या तब भी उन्हें मैं याद ना आया.

उस दिन भी था मैं रोया, आज पड़ा मुझे फ़िर रोना.
दिन बीता पर स्नेह ना पाया, आज ये मैंने जाना.......
        जो दम भरते हैं प्यार का,
        खुद रीते हैं प्यार के.
        औरों को क्या बांट सकेंगे,
        जो खुद भूखे उपहार के.

उपहार मिला था प्यार का मेरे जन्म दिवस पर,
है वही दिन आज भी पर, हैं वो गैर की बाहों में.
क्यूं छोड़ा हमें आपने य़ूँ सिसकती राहों में//

कहने के हैं दोस्त सभी, है कोई नहीं अब पूछने वाला,
अकेला आया था धरा पर, हूँ आज मैं फ़िर वहीं अकेला..

Friday, April 04, 2008

आंगन की वो पहली किलकारी

 

माँ-पिता की शादी के तीन - साढ़े तीन साल गुज़र चुके थे. गाँव की बड़ी-बूढ़ी औरतों के बीच कानाफ़ूसियां शुरू हो चुकी थीं. माँ की गोद अब तक हरी नहीं हुई थी. पति पत्नी अपनी विदुषी माँ/सास के कहे अनुसार दवाओं और दुआओं दोनों से आस लगाये हुए थे.

अंततः "माँ तेलडीहा" का आशीर्वाद फ़लीभूत हुआ और उन व्यथित मनों को 5 साल पूरा होते होते सुकून मिला जब उनके आंगन में पहली किलकारी गूंजी थी. तारीख थी यही आज की तारीख यानी 4 अप्रैल. बच्चा बढ़ने लगा. पिता की नौकरी भी लग गयी थी, घर से दूर हो गये थे. पर हफ़्ते - पन्द्रह दिनों पर जब भी घर आते अपना सारा प्यार लुटा जाते. लोग कहते, इ त रोजे बढ़ै छौं हो( ये तो रोज ही बढ़ता जा रहा है). माँ-दादी अपने आँचल में अपने लाडले को छुपा लेतीं.

                                           प्यार की पींग

अपने गोद में लेकर पिता उसे महापुरुषों की कहानियां सुनाते. उसे लेकर अपने खेतों पर चले जाते, मेड़ों पर चलते हुए कहते ... बेटा, कहो... क, ख, ग,......A, B,C,D.... 1,2,3.....

पिता office चले जाते, अपनी जिम्मेदारियां अपनी और बच्चे की माँ पर छोड़ जाते. विदुषी दादी बच्चे को रामायण और महाभारत की कहानियाँ सुनाया करतीं.

                                           हमारी प्यारी मम्मी

पर बच्चा तो बच्चा था, गाँव के शैतान बच्चों के साथ ने उसे बिगाड़ने की भरपूर कोशिश की थी... कुछ हद तक सफ़ल भी हुआ. पर पिता के घर के नजदीक हुए तबादले ने उन गलत मंसूबों को कामयाब नहीं होने दिया.

4 साल के होते न होते 27 मार्च को बच्चे के छोटे भाई ने भी अपना अस्तित्व जाहिर कर दिया था. एक खिलौना उसे मिल गया था. इस नये बच्चे की बढ़वार कम थी, हमेशा गुमसुम सा एक जगह बैठा रहता, अपने में कुछ खेलता रहता. अब किसी को क्या पता था कि सब से ज्यादा नहीं बोलने वाला ये छोटा सा लड़का आगे चलकर एक सफ़ल इंजीनियर बनने जा रहा है और शायद IIM के कठिन interview को पार कर एक सफ़ल मैनेजर भी बन जायेगा.  हां कद का भी और बोलचाल का भी छोटा नहीं रहा वो छोटा भाई.

                                          टूटू

वो छोटा सा बच्चा अपने छोटे भाई को बहुत प्यार करता था, करता है और सदा करता रहेगा.

जब तक छोटा भाई स्कूल जाने के लायक नहीं हुआ था तब तक पिता सिर्फ़ बड़े को ही लेकर अपनी सायकिल पर कभी आगे कभी पीछे बैठा कर स्कूल ले जाते, शाम को दफ़्तर से आते वक़्त उसे फ़िर स्कूल से घर ले आते. जाते आते अंग्रेजी के अनेक शब्दों के अर्थ बच्चे को याद कराते जाते, कभी पिछला शब्द भूल जाने पर एक जोरों की डांट और कभी एक चांटा भी रसीद कर दिया करते उसी तरह सायकिल चलाते हुए ही. पर फ़िर उसी शाम को बारी आती किसी प्रेरक प्रसंग की.

........ चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण.
ऐते पर सुल्तान है, मत चूको चौहान.

                                             Papajee

भाई स्कूल जाने के लायक हुआ, पिता दोनो को अपनी उसी साइकिल पर आगे पीछे बैठा कर स्कूल ले गये. माँ ने छोटे के लिये कपड़े का एक बैग बना कर दे दिया था. शाम को पिता के दफ़्तर से लौटकर आने में देर हो गयी. तीन बजे स्कूल समाप्त होता तो पिता पाँच बजे तक भी नहीं आये. बड़ा भाई छोटे को समझा रहा था. पर तभी स्कूल में रहने वाली कुछ लड़कियों ने कह दिया कि अब पिता नहीं आयेंगे. थोड़े आंसू बड़े की आंखों में भी आ गये पर छोटा देख नहीं पाया. शाम ढलती जा रही थी. घर से स्कूल बहुत दूर है, चलो टूटू( हां, छोटे का नाम यही है) पैदल ही चलते हैं.

बच्चे का पहला दिन और उसे बड़ा भाई पैदल ही चला कर घर लिये जा रहा है. बीच-बीच में पीछे भी देख रहा है , पिता तो नहीं आ रहे. पर नहीं. पिता ने सिखाया है पैदल रोड पर नहीं चलना, गाड़ियां आती जाती रहती हैं. सो, किनारे किनारे दोनों चले जा रहे हैं. छोटा भी उसी उत्साह से चल रहा है. कभी पत्थरों पर पैर पड़ता है तो बच्चा गिर जाता है , बड़ा उसे सम्हालता है. बच्चा गिर जाता है , बड़ा उसे फ़िर सम्हालता है. इस तरह दोनो बच्चे गिरते सम्हलते , एक दूसरे को ढाढ़स बंधाते उस 6 km की दूरी तय कर घर पहुँच जाते हैं. दादी और मम्मी दोनों की करुण गाथा सुनकर उन्हें अपनी छाती से चिपका लेती हैं. 10 मिनट बाद पिता घर पहुँचते हैं और कहानी सुनकर अपना भी माथा पीट लेते हैं.

आज 4 अप्रैल है, वो दिन जिसे मैं कभी नहीं भुला सकता. जिस बड़े बच्चे को आपने देखा वो मैं ही हूं और वो छोटा भाई सुजीत कुमार, IIT ROORKEE से pass out , फ़िलहाल रक्षा मंत्रालय के BHARAT ELEC में कार्यरत और IIM तथा XLRI के interview  के बाद results की प्रतीक्षा में है.

27 march पिछले दिनॊं गुज़र गया और मैं सोचता ही रह गया कि एक पोस्ट अपने प्यारे भाई के लिये लिखूंगा. अच्छा जब शुरुआत की है तो आगे मंजिलें और भी हैं. अगर मैं आगे नहीं लिखूंगा तो हमारी वो छोटी सी बहन भी तो नाराज़ हो जायेगी कि मेरे बारे में नहीं लिखा.

                                          पापा-गुड़िया

खैर, आज अपने जन्मदिन पर मैं अपने तीनों भाई बहन की ओर से अपने प्यारे मम्मी पापा को ये गाना समर्पित करता हूँ. आपने जिस पथ की हमें राह दिखाई हम उस पर अपने क़दम बढ़ा रहे हैं. जिस तरह आज तक आप लोगों का आशीष हम पर है वो इसी तरह हमपर हमेशा बरसता रहे.

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Sunday, March 09, 2008

अब चराग़ों का कोई काम नहीं....

दोस्तो,

कभी - कभी हम अपने आस पास पड़े हुए कुछ चीजों से अनजान रहते हैं. और जब एकाएक जब वो चीजें हमारी नजरों के सामने आती हैं तो हमें एक आश्चर्य सा होता है कि अब तक हुम इससे यूं अनजान कैसे बने बैठे थे. ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ जब एक गाना जो मेरे अल्बम में जाने कब से पडा था,वो अन्य गानों के साथ बज उठा. और जब मैनें उसे सुना तो क्या कहूं हुजूर, दिन भर सुनता ही रह गया.

मैने ये बात बहुत बार कही है कि येसुदास साहब को मैं अपनी दिल की गहराइयों से पसन्द करता हूं; और जब उनके साथ मेरे हमेशा से प्रिय संगीतकार खै़य्याम साहब का संगीत हो तो आप मेरी खुशी का अन्दाज़ा आप लगा सकते हैं.

आज मैं जिस गाने को लेकर आपसे मुखातिब हूं उसे मैने कल ही पहली बार सुना इसीलिए आप उसे मेरी उस ‘पहली बार’ श्रृंखला की अगली कड़ी मान सकते हैं.

                                                       बावरी

1982 में राकेश रौशन और जयाप्रदा अभीनीत एक फ़िल्म आयी थी ‘बावरी’. इस फ़िल्म के अन्य कलाकार थे योगिता बाली और डा. श्रीराम लागू. जब गाना सुनने के बाद मैने इस फ़िल्म के बारे में जानकारी जुटानी चाही तो बहुत इन्टरनेट खंगालने के बाद भी मुझे ज्यादा जानकारी नहीं मिल पायी. बहुत संभव है कि आपमे से बहुतों ने यह फ़िल्म देखी हो,तो उन्हें इसके बारे में पूरी बात पता हो.

बहरहाल, मैं बात कर रहा था इसी फ़िल्म के उस गाने की जिसे मैने पहली बार सुना और दिलो दिमाग पर छा सा गया. मैं युनुस भाई के शब्दों को उधार लूंगा और कहूंगा कि सचमुच ये एक संक्रामक गीत है. इसे लिखा है माया गोविन्द ने,संगीत है खै़य्याम का और इसे अपनी सुरीली और मधुर स्वरों से सजाया है लता मंगेशकर और येसुदास जी ने. किसी भी गीत की जान होते हैं उसके बोल, पर अगर बोलों को कर्णप्रिय धुनों और अच्छी आवाज़ों का साथ न मिले तो अच्छी शायरी भी लोगों की जुबान पर नहीं चढ सकती. पर यहां देखें माया गोविन्द की कलम की तासीर..

"अब चराग़ों का कोई काम नहीं,
तेरे नैनों से रोशनी सी है.
चन्द्रमा निकले अब या ना निकले,
तेरे चेहरे से चांदनी सी है. "

बेहद सादा और नर्मो नाजुक से बोल को खै़य्याम साहब ने अपनी धुनों से और भी नरमी बख्शी है. लता जी और येसुदास की वो लहराती हुई आवाज़ हमें मानों किसी और ही दुनिया में खींच ले जाती है.

बीच के लफ़्जों पर ध्यान दें, लता जी गाते - गाते रुक जाती हैं...

"रात सपने में कुछ अजब देखा,
शर्म आती है ये बताते हुए........ "

इसके बाद.. येसुदास जी का वो कहना " रुक क्यूं गयी.. कहो ना." यहां ये तीन पंक्तियां गाने को एक ऊंचाई पर ले जाती हैं.

आइये, अब अधिक इन्तज़ार नहीं..सुनिये चासनी में डूबे इस गीत को और साथ में पढें अशआरों को और दाद दी जाये शायरा के कलम को...

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अब चराग़ों का कोई काम नहीं,
तेरे नैनों से रोशनी सी है.
चन्द्रमा निकले अब या ना निकले,
तेरे चेहरे से चांदनी सी है.

हुस्न -ए- कश्मीर, जादू-ए-बंगाल,
तू सरापा* किसी शायर का ख़याल.
तूने ज़र्रे को सितारा समझा,
ये है साजन तेरी नज़रों का कमाल.

तेरी सूरत में जलवागर लैला,
जानेमन तू ही सोहनी सी है.
तेरे नैनों से रोशनी सी है.

एक ख्वाहिश, एक ही अरमां,
रात दिन बस तेरी पूजा करना.
तेरे चरणों की बन रहूं दासी,
तेरे चरणों में ही जीना मरना.

मेरे सपनों की तू महारानी,
तेरी सूरत में मोहिनी सी है.
तेरे नैनों से रोशनी सी है.

रात सपने में कुछ अजब देखा,
शर्म आती है ये बताते हुए........

रुक क्यूं गयी..... कहो ना..

एक सीपी में छुप गया मोती,
जाने कब ओस में नहाते हुए.

तूने खुशियों से भर दिया आंगन,
तेरी ये बात रागिनी सी है.
तेरे नैनों से रोशनी सी है.

हर जनम में रहेगा साथ तेरा,
ऐ मेरी सीता मेरी सावित्री.
नाम तेरा मैं मन्त्र कर लूंगा,
गायत्री,गायत्री ही गायत्री.

तेरी बांहों में जो ये दम निकले,
मौत भी मेरी जिंदगी सी है.

चन्द्रमा निकले अब या ना निकले,
अब चराग़ों का कोई काम नहीं,
तेरे चेहरे से चांदनी सी है.
तेरे नैनों से रोशनी सी है.

                                                 * सिर से लेकर पाँव तक.

तो मेरे संगीतप्रेमी सुधी पाठको, आशा है आपको ये प्रस्तुति अच्छी लगी होगी. अपनी प्रतिक्रियाओं से मुझे जरूर अवगत कराते रहें.

Friday, February 29, 2008

वसंत और फगुआ

                                                 cherry-blossom-tree-flowers

वसंत अपने शवाब पर है और हवाओं में फगुनाहट की मादक महक सरसरा रही है. इसी अनुभव को आत्मसात करने के लिए मैं कुछ दिनों के लिए अपने गाँव चला गया था. यूँ तो गाँव जाने का मकसद कुछ और ही था पर फागुन के इस महीने में जो छटा चारों ओर फैली रहती है उसे देखने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पाया.

आइये आप भी बसंती फागुनी बयार को मेरे साथ महसूस करें.......

डॉक्टर्स की नियुक्ति के लिए ऑनलाइन आवेदन को भर कर मुझे अपने गृह जिला मुंगेर में जमा करना था. उसी सिलसिले में मैं पटना से 25 तारीख को को निकला और दोपहर 12:30 में मुंगेर पहुँच गया. सारी कागजी कारवाई करते हुए मुझे सवा तीन बज गए. अब मुझे यहाँ से अपने घर , महेशपुर , जो थाना तारापुर के अंतर्गत पड़ता है, जाना था. तारापुर मुंगेर से लगभग 50 KM पूर्व दक्षिण में स्थित है. यूँ तो डायरेक्ट बस सेवा भी उपलब्ध है पर आज कल चूंकि रेल क्रॉसिंग पर flyovers बन रहे हैं इसीलिए मैं ट्रेकर से बरियारपुर उतर गया. वहाँ से रेल पटरी पार कर खड़गपुर के लिए बस पकड़नी थी, चूंकि कोई भी सीधे तारापुर जाने के लिए तैयार नहीं था.

मैं एक बस में जा बैठा. घड़ी 4:45 का समय बता रही थी. सूर्य अब कुछ ही देर में खड़गपुर की पहाड़ियों की वादी में गुम हो जाने वाला था. जिन पहाड़ियों को मैं दूर से देखा करता था उन्हें आज फ़िर नजदीक देख रहा था. मुझे विश्वास था की 5:45 तक मैं खड़गपुर पहुँच जाऊँगा और वहाँ से आगे के लिए कोई वाहन मिल ही जायेगा. अंततः 5:00 बजे जाकर बस खुली.

अपनी मिट्टी की सुगंध ही कुछ और होती है. एक बार फ़िर मैं उस सुगंध को अपने जेहन में आत्मसात करना चाह रहा था या कहें कि एक परत और चढ़ा देना चाह रहा था. गाड़ी उस कच्ची पक्की सड़क पर अपनी गति से हिचकोले खाती हुई बढ़ रही थी. खिड़की के पास बैठा मैं सड़क के किनारे बसे गाँवों को देखता , अपना सा महसूस करता चला जा रहा था. वहीं पास में खड़गपुर की पहाड़ियाँ भी मुझसे कदम ताल मिला रही थी और सूरज भी उसके साथ भागा जा रहा था, मानो कह रहा हो अरे मैं आ रहा हूँ कहाँ जा रही हो.

                                               Image(009)

मैं अपने आप में खोया जा रहा था. उस ढलती शाम में कई यादें सर उठा रही थीं.... पापा के साइकिल पर school से घर लौटना, पापा का वो महापुरुषों की कहानिया सुनाना, खेत खलिहान में भाइयों के साथ तितलियाँ पकड़ना, दूसरे के आम के पेड़ों में ढेले मार कर टिकोले गिराना और जब डंडा लेकर आम का मालिक आए तो जोर से घर भागना.... चेहरे पर न चाहते हुए भी मुस्कराहट आ ही जा रही थी.

तभी एक जानी पहचानी सी सुगंध मुझे फ़िर से छेड़ने लगी. मैंने देखा किनारे बसे गाँवों में धान उसना जा रहा है और उसी उसनते धान की खुशबू चारों तरफ़ फ़ैल रही है. आज कल धान कट कर खलिहान से होते हुए घरों में आ गए हैं जहाँ उन्हें उसना जा रहा है अर्थात बड़े से कड़ाह में पानी के साथ धान को तबतक उबला जा रहा हैं जबतक कि उसके चावल मुलायम ना हो जाएं. फ़िर इन्हें सुखाया जायेगा और तब कूटा जायेगा जिससे निकले चावल को उसना चावल कहते हैं.

मेरी नजर अब बार - बार घड़ी की ओर जा रही थी. पौने छः बज चुके थे. सूर्य पहाड़ियों में उसी तरह ढल चुका था जैसा मैंने उसे हमेशा ढलते देखा था. शाम का धुंधलका अब धीरे धीरे गहराता जा रहा था. पर मैं अब भी 7 km दूर था. अपने आप को विश्वास दिला रहा था कि बस तो आगे के लिए मिल ही जायेगी. पापा का फ़ोन भी आ चुका था कि किसी को मोटरसाईकिल के साथ भेज दें मुझे लाने के लिए. पर मैंने कहा कि देखते हैं.

गाडी उसी तरह चलती हुई आख़िर 6 बजे खड़गपुर पहुँच ही गयी. जैसा कि आशंका हो ही रही थी आगे के लिए कोई गाड़ी नही थी. मैंने पापा को कह दिया किसी को भेज दें. शाम रात में तब्दील होती जा रही थी. मुझे भूख भी लग आई थी, क्योंकि जल्दी जल्दी गाड़ी पकड़ने के चक्कर में खाना भी नहीं खाया कहीं.

6:35 में मोटरसाईकिल आ गयी. शाम अब रात बन चुकी थी. खड़गपुर में भी बिजली नही थी और दुकानों में  जनरेटर से जलते हुए CFL लटके हुए मानो ऊँघने लगे थे. रात की सरसराती ठंढी हवाएं मानो कानों को बेध रही थीं. चौड़े मगर उबड़ खाबड़ सडकों पर अभी 12 KM का सफर और भी तय करना था. रास्ते के किनारे बसे गाँव भी पीछे छूटते जा रहे थे. घरों से झांकती लालटेन की रोशनी कहती कि कोई घर नजदीक ही हैं. दूर से भी टिमटिमाती रोशनी गांवों का आभास दिला रही थी. बीच सड़क पर जुगाली करते जानवर, टॉर्च लेकर दिशा मैदान से फारिग होने जाती औरतें और लड़कियां, लालटेन की मद्धिम रोशनी में कहीं दूध दुहते लोग, कहीं अपने ओसारे में कुछ बच्चों को पढ़ाते मास्टर साहेब, गुजरती मोटरसाईकिल को देखते बच्चे... अपना सा लगने लगा था.

एक तो ऊपर खाबड़ सड़क उस पर भी बिना डीपर देते हुए गुजरते बड़े बड़े ट्रक, मेरा चचेरा भाई अमित बखूबी बाइक की हैन्डल सम्हाले हुए था और मैं पीछे बैठा अपने गंतव्य की ओर बढे जा रहे थे. ठंढी हवाओं से आंखों में पानी भर आया था. आख़िरकार 7:15 में हमलोग घर पहुँच ही गए.मम्मी पापा अपने लाडले को सकुशल आया देख खुश हो रहे थे.

रात को खाकर लेटा तो ढोलक की थाप, हारमोनियम की धुन और झाल की खनखनाहट कानों में एक दूसरा ही सुरूर पैदा करने लगी. फागुन का महीना चल रहा है और मेरे गाँव में फगुआ गाया जा रहा था. बसंत पंचमी के बाद ही पूर्वांचल के जनपदों में होली के गीत गाए जाने लगते हैं और ये सिलसिला होली तक बरकरार रहता है. कहीं कहीं इसे फाग भी कहा जाता है, पर हमारे अंग प्रदेश में इसे फगुआ कहा जाता है. फगुआ मतलब फागुन, होली.

...................................

दूसरे दिन एक सुहानी सुबह ने हमारा स्वागत किया. चाय पीकर मैं अपने खेतों खलिहान की ओर निकल गया. खलिहान में लगे आम के हमारे दोनों पेड़ों में मंजर खूब आए हुए है और वो मानो लद कर और झुक कर मुझे सलाम कर रहे थे. आख़िर दोनों पेड़ों को दोनों भाइयों के नाम पर जो लगाया गया हैं. लगता हैं इस बार खूब आम खाने को मिलेंगे. पर ये शैतान बच्चे उन्हें इसी तरह रहने देंगे तब ना. वो ढेले मार मार कर बहुत झाड़ देंगे.

                                                    Image(015)

खेतों में गेहूँ की बालियाँ हवाओं के साथ अठखेलियाँ कर रही थी. कही कहीं सरसों भी फूल रही थी. आलू भी अब उखड़ने लगेंगे.

मेरे घर में भी काम लगा हुआ है. पुराने घर के ऊपर एक और मंजिल बन चुकी है, प्लास्टर किया जा रहा है.

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26 फरवरी की शाम, दिन मंगलवार. 7:15 बजे हैं और मेरे घर के बगल के शिव मंदिर से ढोलक की थाप और झाल की वो झनझनाहट सुनाई पड़ने लगी. हाँ, हरेक मंगलवार को यहाँ गाँव के लोग खाना पीना खाकर जुटते हैं और लगभग दो घंटे भक्ति की रसधार बहती रहती है. पाँच छः लोगों की टोली भजन गायन करती है और लोग भक्तिमय हो जाते हैं. साज के नाम पर मात्र हारमोनियम, ढोलक और झाल. परन्तु संगीत चमत्कृत और दिल में उमंग भर देने वाला.

भगवान शिव की वंदना से शुरू होकर ये कार्यक्रम शिव भजन से ही समाप्त हो जाता है. बीच में माँ काली, माँ दुर्गा, राम,कृष्ण सारे देवताओं की स्तुति की जाती है. आज कल मौसम को देखते हुए तीन चार अच्छे फगुआ भी गाए जाते हैं. इसी तरह बारहमासे, चैतावर आदि भी समय समय पर शामिल किए जाते हैं.

कार्यक्रम शुरू था और मैं उसका आनंद उठा रहा था तभी लगा कि ये तो मेरे पोस्ट के लिए एक अच्छी चीज है. बस फ़िर क्या था, मैं रेकॉर्ड कराने के जुगाड़ में लग गया. पर कोई साधन उपलब्ध नहीं था. हाँ आल टाइम good मोबाइल जरूर हाथ में था. इसी में मैंने रेकॉर्ड कर लिया. हालांकि क्वालिटी ठीक नहीं है फ़िर भी एक आनंद जरूर आपको आयेगा.

सबसे पहले सुने भगवान् शिव के पंचाक्षर मन्त्र " नमः शिवाय " का गायन, इसी से कार्यक्रम की समाप्ति होती है.

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अब सुनें एक फगुआ गीत जिसकी फरमाइश मैंने की थी और गायन मंडली ने सोचने के बाद ये गीत गाया था. गीत का भाव है कि राजा दशरथ अपने महल में होली का आयोजन कर रहे हैं और उन्होंने सारे देवताओं को आमंत्रित किया है. सारे देवता अपने अपने तरीके से आ रहे हैं. सुनिए और पढ़िये.....

raja dashrath ke d...

राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
इन्द्रलोक से इन्द्र जी आए, घटा उठे घनघोर,
बूँद बरसत आए...
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
ब्रह्मलोक से ब्रह्मा आए,पोथियां लिए हाथ,
वेद बांचत आए...
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
शिवलोक से शिवजी आए , गौरा लिए साथ,
भांग घोटत आए..
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
वृन्दावन से कान्हा आए राधा लिए साथ.
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..
राजा दशरथ के द्वार देव सब जुट आए..

Thursday, February 21, 2008

बदन पे सितारे लपेटे हुए......

दोस्तो,

आपने मेरी ग्रामोफोन गाथा को पसंद किया और इसका पहला भाग भी आपने देखा. आप सभी का शुक्रिया.

हमारे कई संगीतप्रेमी मित्रों ने सलाह दी कि इस मजेदार गाथा को आगे भी जारी रखा जाए. आप सबों का अनुरोध मैं कैसे ठुकरा सकता हूँ. वैसे भी यूनुस भाई ने अपने विविध भारती के ख़जाने से मेरे पोस्ट के लिए रेकॉर्ड्स की दुर्लभ तस्वीरें भेजी हैं. आप सबों के लिए इस गाथा का अगला और मनोरंजक भाग भी जल्द ही लेकर आऊँगा.

पर आज थोड़ा सा विषयांतर ....

आज पहली बार आपका ये दोस्त अपनी पोस्ट पर यू ट्यूब का विडियो लेकर हाजिर हुआ है. वैसे मैं गानों को देखने से ज्यादा सुनना पसंद करता हूँ पर आज जिस विडियो क्लिप को मैं आपके लिए लेकर आया हूँ वो सचमुच बेजोड़ है. हुआ यूँ कि मैंने अपने पीसी के ऑपरेटिंग सिस्टम विन्डोज़ XP प्रोफेशनल के लुक को बिल्कुल विन्डोज़ विस्टा की तरह कर दिया है और उसी सिलसिले में नेट पर कुछ खोजबीन कर रहा था तो मुझे ये विडियो क्लिप मिली. तो दिमाग में एक बात आयी कि क्यूं न एक पोस्ट ही लिख दी जाए. तो लीजिये हाजिर है....

फ़िल्म " प्रिंस " सन् 1969  में आयी थी और इसके मुख्य कलाकार थे शम्मी कपूर साहब, वैजयंतीमाला जी, अजीत साहब और हेलन जी. यह फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट रही थी. फ़िल्म में संगीत शंकर-जयकिशन जी का था. शम्मी कपूर साहब की अन्य फिल्मों की तरह ही इस फ़िल्म में भी उनके लिए पार्श्व गायन किया था मोहम्मद रफी साहब ने.

आज मैं आपके लिए इसी फ़िल्म का एक बेहतरीन गीत लेकर हाजिर हुआ हूँ. ये गाना क्या है साहब, पूरे बदन को थिरका देने का पूरा इंतजाम है. वैसे भी जिस गाने में शम्मी कपूर साहब हों और वो गाना पूरे शरीर को मरोड़ कर ना रख दे ऐसा कभी कभी ही होता है.


ज़रा शुरुआत देखिये...तेज ऑर्केस्ट्रा के बीच वैजयंतीमाला जी चमकदार साड़ी में तेज कदमों से चलती हुई आती हैं और शम्मी साहब के अनुरोध को ठुकरा कर अजीत जी के साथ डांस करने लगती हैं. तभी रभी साहब की झूमती हुई मस्ती भरी आवाज़ फिजा में तैरने लगती है और शुरू होती है शम्मी साहब की वो यूनिक अदाएं.
अदाएं जारी रहती हैं, नायिका नायक के साथ हो लेती हैं.. और बेचारे अजीत साहब देखते रह जाते है..
आइये देखें इसी गाने को यू ट्यूब पर.

                          


आपने शम्मी कपूर साहब की मस्ती देखी, वैजयंतीमाला जी का हुस्न देखा, अजीत साहब की बेचारगी देखी; आइये अब तस्वीर का दूसरा और मनोरंजक रुख देखें.


मोहम्मद रफ़ी साहब के एक लाइव कंसर्ट की विडियो क्लिप जिसमें रफ़ी साहब ने इसी गाने को जनता के सामने गाया है. बैकड्रॉप में अकॉर्डियन और सेक्सोफोन का जबरदस्त साथ. गायकी में वही मस्ती, वही चुलबुलापन, पर आप देखें... क्या कुछ नया लगा? कुछ मस्ती छायी?


आइये जब पूरी दुनिया ही बसंत के खुमार में डूबी है तो न रफ़ी साहब पीछे रहे हैं न हम रहेंगे....

 

                           

 

कहिये कैसी रही...........

Tuesday, February 19, 2008

अथ श्री ग्रामोफोन गाथा....




                                                   vinyl_record

( एक बार आप लोगों से क्षमा प्रार्थना के साथ ये पोस्ट आपके लिए फ़िर से हाजिर है...)

...... ग्रामोफोन से मेरा परिचय तो भैया ने करवा ही दिया पर ये परिचय एक लगाव में परिणत हो गया। अब तक जिन गानों से मेरा सिर्फ़ दूर का नाता था अब वो मेरे क़रीब बजने लगे थे और मैं सम्मोहित सा हो गया था.

जब भी गाने बजने लगते मैं मम्मी से बहाने बनाकर पहुँच जाता ग्रामोफोन के पास। उसे इस क़दर देखता मानो अभी गाने वाले उसके अन्दर से बाहर आ जायेंगे। बाहर वो बड़ा सा भोंपू ( लाउड स्पीकर) बजता होता फ़िर भी कान लगा कर सुनने की कोशिश करता कि अभी भी यहाँ से आवाज़ निकल रही है कि नहीं.आस पास देखता कि कोई नहीं है तो सुई उठा कर कभी बीच में रख देता तो कभी अंत में। लोग दौड़े आते कि एक गाना बज रहा था तो अचानक दूसरा कैसे बजने लगा, और मेरा कान उमेठ दिया जाता जैसे मेरा कान ही उस ग्रामोफोन का handle हो.


ये मेरे लिए बहुत ही अचरज का विषय होता कि जब हम सुई को चकती के एक किनारे में रखते हैं तो वो उस अन्तिम किनारे तक कैसे पहुँच जाती है। भैया बताते कि चकती में खाँच बने हुए हैं. पर मुझे समझ में नहीं आता. मुझे तो वो रेकॉर्ड, जी हाँ, चकती को रेकॉर्ड कहते हैं ये मैं जान गया था, बिल्कुल चिकना नजर आता था.


अब जब रेकॉर्ड का मतलब मुझे पता चल चुका था तो भी मुझे एक परेशानी ने घेर लिया था। जब भी बड़े लोग ,भैया लोग कहते - ओह आज त पानी एतना पड़ै छै कि रेकार्डे टूटी जैतै, एतना रन बनैलकै कि रेकार्डे टूटी गेलै.... - मैं तो मुश्किल में पड़ जाता कि ये रेकॉर्ड कैसे टूट जायेगा, ये तो बक्से में बंद है. ये परेशानी भी बाद में दूर हुई.


ग्रामोफोन की बात करूं और मैं उसके रेकॉर्ड्स की बात ना करूं तो बात पूरी हो ही नहीं सकती। आख़िर सारे गानों की जान तो वही थे.

एक छोटे से बक्से में बंद रहते थे वे सारे रेकॉर्ड्स। बहुत नाजुक मिजाज़ वे रेकॉर्ड्स अगर हाथ से छूट गए तो फ़िर गए. काले काले चमकते हुए रेकॉर्ड्स जिनके बीच में लाल रंग का गोल सा कागज़ चिपका होता था जिसपर कंपनी का लेबल फ़िल्म का नाम ,गानों के नाम, और सारे विवरण होते.
वैसे तो भैया के पास अधिकतर छोटे साइज़ के रेकॉर्ड्स ( 7 इंच के) थे पर कुछ उनके पास बड़े रेकॉर्ड्स ( १२ इंच के) भी थे। इन बड़े और छोटे साइज़ के रेकॉर्ड्स के बारे में पूरी जानकारी आप यहाँ(विकिपीडिया) से ले सकते हैं।

मैं उन रेकॉर्ड्स के लेबल्स पर के नामों को पढ़ता और कुछ-कुछ समझने की कोशिश करता। पर उनमें से मुझे सबसे ज्यादा fascinate किया HMV के उस logo ने - एक ग्रामोफोन और उसके आगे बैठा एक कुत्ता,जो मानो उस लाउड स्पीकर में गा रहा है.... या सुन रहा है.? मुझे आज तक समझ नहीं आया है. भैया के पास जितने भी रेकॉर्ड्स थे उनमे वो logo रहता ही था अर्थात वो सभी HMV के ही थे. कुछेक मुझे याद आती है के दूसरी कंपनियों के थे. तभी से शायद मुझे HMV से एक तरह का लगाव हो गया, जब मैंने अपना कैसेट प्लेयर खरीदा तो सबसे ज्यादा HMV के ही कैसेट खरीदे।


उतने सारे रेकॉर्ड्स के बीच में जो गाने मुझे याद आते हैं उनकी फिल्में हैं - रोटी,कपडा और मकान॥, जय संतोषी माँ, और नदिया के पार।


आज इस ग्रामोफोन गाथा को आगे बढ़ाने का श्रेय अगर मैं दूंगा तो वो इन्हीं फिल्मों के गाने हैं जिन्हें मैं लाख चाहूँ , अपने जेहन से कभी उतार नहीं सकता। कल मैंने आपसे वादा किया था आपके लिए एक पॉडकास्ट लेकर आऊँगा, तो दोस्तो, इन्हीं में से एक गाने को मैं आपके लिए लेकर आया हूँ. इस गाथा को मैं आज अपने अंजाम तक पहुँचाउंगा और इसके साथ ही शुरुआत होगी एक ऐसे फ़नकार पर एक श्रृंखला की जिन पर शायद सबसे कम लिखा गया.


एक ऐसा फ़नकार जिसने हमें इतने खूबसूरत गीतों से नवाज़ा। अपनी मधुर और रस बरसाती आवाज़ का जादू हमपर बरसाने के बाद आज की इस शोर भरे संगीत से अलग रख कर अपनी संगीत साधना में तल्लीन है.


यूँ तो फ़िल्म " नदिया के पार" के सभी गाने एक से बढ़कर एक हैं, और आपने उन्हें खूब सुना भी होगा. पर आज जो गीत मैं आपको सुनवाने जा रहा हूँ, उसे मैंने पहली बार पसंद किया था जब वो ग्रामोफोन पर बजता था। हेमलता और जसपाल सिंह जी की मधुर आवाज़ का जादू उस समय भी मेरे मन पर वैसे चढ़ा था मानो कभी नहीं उतरेगा और ये सौ फीसदी सच है.आंचलिकता की खुशबू समेटे ये दोगाना ग्रामीण परिवेश के प्रेमियों के बीच निश्छल प्यार की शुरुआत और छेड़ छाड़ के रिश्ते की क्या खूब कहानी कहता है. रवीन्द्र जैन जी का दिल को छू लेने वाला संगीत मानो हमारे सामने गाँव की उसी दुनिया को साकार कर देता है.

"साथ अधूरा तब तक जब तक,

पूरे ना हों फेरे सात हो।"

आइये गीत सुने और उस फ़नकार के फ़न को सलाम करें।

Kaun Disha Mein Le...

Sunday, February 17, 2008

भैया का वो बाजा ....


दोस्तो,
एक बार मैं फिर हाजिर हूँ आपको अपने उन अनुभवों से रूबरू कराने को जिनसे मैं ख़ुद पहली बार मिला था।

इस 'पहली बार' की कड़ी में पहले आप मिल चुके है अज़ीज़ नाजां की उस क़व्वाली से, अहमद हुसैन-मुहम्मद हुसैन की उस ग़ज़ल से, उस भजन से, और जगजीत सिंह जी से।

आज फिर मैं हूँ, आप हैं और है वो ...
जी हाँ, वो ग्रामोफोन , जिसे मैंने पहली बार अपने बड़े बाबूजी के यहाँ देखा। चूंकि उसे उनके बड़े बेटे प्रमोद भैया ही चलाते थे इसलिए मैं उसे भैया का बाजा ही कहता था।

पाँच - छः साल का रहा होऊंगा तब। रेडियो से जुडाव तब नया नया ही था। वो भी बच्चों के कार्यक्रम बाल मंजूषा तक ही. रेडियो पर गाने भी आते ही थे उस समय भी. पर यदि मैं कहूं कि सही मायनों में गानों से मेरे लगाव की वजह वो ग्रामोफोन ही था तो मैं ग़लत नहीं हूँ.

जब भी गाँव में शादी-ब्याह होते, नाटक होते, सरस्वती पूजा या काली पूजा होती, छठ पर्व की धूम नदी किनारे होती, इन अवसरों पर वो ग्रामोफोन खूब बजता।

हालांकि मेरे और भैया के घर के बीच दीवारें पड़ चुकी थी पर दिलों पर खींची दीवार अभी ऊंची नहीं हुई थी. पापा मुझे अपने कंधे पर बिठाकर उस घर में ले जाते और बड़ी माँ को आवाज़ देते हुए कहते- क्या मालकिन जी...? फ़िर मैं वहीं खेलने लगता।

उन्हीं दिनों में मैंने घूमने वाली और गाने वाली वो मशीन देखी थी। एक बक्सा जो खुला हुआ था और उसपर रखी थी घूमने वाली चकती। बगल में एक छोटे बक्से में भर कर रखी हुई कई काली चकतियाँ. उन काली चकतियों के बीच में लाल गोल कागज़ चिपका हुआ जिस पर बना था HMV का वो मशहूर प्रतीक- ग्रामोफोन के आगे बैठा एक कुत्ता.

तो साहब, मैं उस पूरे यंत्र को देख ही रहा था कि भैया ने उसकी handle घुमाई। एक लाल-काली चकती को उस पर रखा और वो चकती उस पर गोल घूमने लगी.भैया ने एक और handle को बक्से से उठाकर उस चकती के किनारे में रख दिया.
जनाब, छत पर रखे उस लाउड-स्पीकर से गाने बजने लगे।लाउड-स्पीकर तो मैं पहले से पहचानता ही था क्योंकि वो तो हमेशा बाहर से दिखता ही था और पापा ने उसका नाम भी बता दिया था। लेकिन उस बड़े से भोंपू के पीछे ये मशीन है, मैंने पहली बार ही जाना था।

गाने बजते जा रहे थे और मैं handle से छेड़ छाड़ करने लगा तभी भैया ने डांटा - सुई टूट जायेगी... सुई कहाँ है.? मैंने पूछा. तब उन्होंने बताया कि सुई इस handle के नीचे है और वो बहुत जल्दी टूट जाती है।

......इस तरह ग्रामोफोन से मेरा पहला परिचय हुआ था। वो बिजली से भी चलता था और बिना बिजली के भी, handle उमेठने के बाद।

एक दिन मम्मी ने तीज किया था, गाँव की और भी औरतें आयी थीं. ग्रामोफोन भी आया था अपने भाई भोंपू के साथ. रात भर "जय संतोषी माँ" फ़िल्म के भजन बजते रहे. दिन में बिजली कट गयी. कोई नहीं था अगल बगल, मुझे शरारत सूझी, मैं पहुँच गया ग्रामोफोन के पास. handle घुमाया, "नदिया के पार" की चकती उस पर रखी और चला दिया. मुझे कुछ बजता हुआ सुनाई दिया. कान लगाया तो पता चला जैसे जैसे सुई घूम रही थी वहीं पर आवाज़ भी निकल रही थी.मेरे लिए तो और आश्चर्य का विषय था. मैं इसके बारे में सबको बता रहा था.

शायद किस्सा -ए-ग्रामोफोन कुछ लंबा होता जा रहा है.... पर अभी तो भूमिका ही बांधी है मैंने।
अगर आप साथ देंगे तो इससे जुड़ा एक पॉडकास्ट भी आपके नज्र किया जायेगा।
मुझे आशा है कि आप दूसरा भाग भी जरूर पढ़ेंगे.

Monday, January 28, 2008

एक उम्दा ग़ज़ल, दो दिलकश आवाजें....

दोस्तो,
नमस्कार!

"प्यार सच्चा हो तो राहें भी निकल आती हैं,
बिजलियाँ अर्श से ख़ुद रास्ता दिखलाती हैं।"

जी हाँ, आपसे जुड़ने की जब मैं दिल में ख्वाहिश कर लूँ तो किसी न किसी तरह आपके लिए हाजिर हो ही जाऊंगा और कुछ अच्छा ही लेकर आऊंगा इतना तो विश्वास है।

आजकल की मेरी हरेक पोस्ट में मैं कोशिश कर रहा हूँ कि मैं आपको अपनी पसंदीदा उन गीतों , गजलों को सुनवाऊँ जिन्हें जब मैंने पहली बार सुना, जाना, पहचाना था तब उन गीतों ने मुझे किस क़दर उद्वेलित किया था.

मेरी पिछली पोस्ट जो मशहूर क़व्वाल अजीज नाजां की बेमिसाल क़व्वाली " झूम बराबर झूम शराबी..." पर आधारित थी, या जगजीत सिंह जी की बीमारी के वक्त लिखी गयी मेरी पोस्ट सबके प्रिय जगजीत ... , या फिर नवरात्रों के समय लिखी गयी मेरी पोस्ट्स में मेरे पसंदीदा भजन वाली पोस्ट आराधना शक्ति की.....; आपने देखा होगा कि मैं अपनी जिन्दगी के उन पहले संगीतमय पलों को आपके साथ बाँटने की कोशिश की है।

आज मैं बात कर रहा हूँ उस ग़ज़ल की जिसका खुमार मुझ पर इस क़दर तारी हुआ था कि अब तक उस ग़ज़ल को सुनने के लिए मैं आकाशवाणी पटना की तरफ़ एक बार तो मैं जरूर कान लगा देता हूँ। उस ग़ज़ल के गुलुकार न तो हर दिल अज़ीज़ जगजीत जी हैं, ना ही पंकज उधास साहब और ना ही गुलाम अली साहब.

बात तब की है जब मैं आठवीं या नवीं में रहा होउंगा और रेडियो हमारा हमराह हुआ करता था, कमसे कम सुबह के पाँच बजे से 9:30 तक और शाम 5:30 से रात के 11 बजे तक। ये बात अलग थी कि रेडियो को कुछ समय के लिए हमें दूर से ही सुनना पड़ता था यूँ कहें कि रेडियो पापा के पास होता दूसरे कमरे में और हम तीनों भाई-बहन पढ़ते दूसरे कमरे में।

सवेरे 8:30 में प्रादेशिक समाचार आकाशवाणी रांची से उसके बाद आकाशवाणी भागलपुर से शास्त्रीय गायन। उसी समय एक दिन मैंने रेडियो का कान उमेठा और पहुँच गए आकाशवाणी पटना के उर्दू प्रोग्राम में. सोचा उफ़! यहाँ भी चैन नहीं. तभी अनाउंसर ने कहा - आइये सुनते हैं ग़ज़ल , आवाजें हैं अहमद हुसैन और मोह्हमद हुसैन की. मैंने फिर सोचा ये कौन नए साहब हो गए. उस समय मैं तो उन्ही तीनों का नाम जानता था,उसके अलावा कौन.

खैर, ग़ज़ल शुरू हुई। और जनाब! क्या खूब शुरू हुई. क्या खूब शायरी उस पर क्या नफासत भरी उम्दा आवाज़, दिल का गोशा-गोशा मानो रौशन हो उठा। सच जैसा उन्होंने कहा था.... "चल मेरे साथ ही चल..." दिल उन्हीं दो आवाजों के पीछे चल ही तो पड़ा.
जनाब अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन साहब की दिलकश आवाजें उस दिन पहली बार उस शानदार ग़ज़ल के रूप में सुनी और उनका बस मुरीद होकर रह गया।

ग़ज़ल का एक शेर तो आप शुरुआत में पढ़ ही चुके हैं, कमाल की शायरी का एक नमूना और देखिये....
"पीछे मत देख, ना शामिल हो गुनाहगारों में,
सामने देख कि मंजिल है तेरी तारों में..
बात बनाती है अगर दिल में इरादे हों अटल..
चल मेरे साथ ही चल........"


आकाशवाणी पटना का वो उर्दू प्रोग्राम फिर तो मेरा पसंदीदा कार्यक्रम ही बन गया जिसके जरिये मैंने अनेक शायरों के कलामों को सुना। पर उन सबकी चर्चा बाद में.

आज तो आप सुनें मेरी वही पसंदीदा ग़ज़ल जिसे अपनी आवाज़ से संवारा है जनाब अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन साहब ने.....

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Monday, January 21, 2008

झूम बराबर झूम.......



संगीतप्रेमी सुधी पाठको,
नमस्कार।

आज बहुत दिनों बाद मैं आपके सामने फिर से हाजिर हूँ अपने एक और पसंदीदा कलाकार की खूबसूरत रचना को लेकर। जैसा आपको शीर्षक देख कर ही आभास हो गया होगा आज मैं आपको झूम जाने का आग्रह करने वाला हूँ।

ये रचना ना तो कोई पॉप है ना ही रैप और ना ही ये कोई आइटम गीत है। फिर भी मेरा विश्वास है आप झूम जरूर जायेंगे।

जी हाँ, आज मैं आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ वो कव्वाली जिसने मुझे पहली बार अपने हाथ और पैर थिरकाने पर मजबूर कर दिया था। इस पहली बार कहने का मतलब ये है कि जब मैं पालनें में ही था।

मेरे पापा हमारे गाँव में होने वाले नाटकों में मुख्य किरदार और निर्देशक दोनों के किरदार अदा करते थे। एक उम्दा गायक और एक अच्छे चित्रकार के भी गुण उनमें थे, बल्कि कहें कि हैं। पर और गाँववालों की तरह उन्हें भी आगे बढ़ने का सुअवसर नहीं मिल पाया और घर गृहस्थी, एक छोटी सी नौकरी में ऐसे फंसे कि अपने सारे मंसूबों का क़त्ल कर उन्होने अपने बच्चों में अपने सारे गुणों को उतार देने की कोशिश की और बहुत हद तक कामयाब भी हुए। बहरहाल, इस वक़्त मैं क़व्वाली की बात कर रहा था कि किस तरह पालने में ही मैं इस क़व्वाली को सुनकर अपने हाथ पैर थिरकाने लगता था।

मम्मी बताती हैं कि जब मैं पेट में था, पापा अक्सर वो क़व्वाली गुनगुनाते रहते थे, और जब भी इसे वो मेरे पालने के पास आकर गाते मैं अपना हाथ पैर मानो इसकी धुन पर थिरकाने लगता था। शायद इस क़व्वाली से मेरा नाता इतना पुराना था इस लिए बाद के वर्षों में भी इसे सुनकर मुझे एक अजीब सी अनुभूति होती थी, ज्यादा सच होगा ये कहना कि अभी भी वो अनुभूति बरकरार है। तभी तो मैं आपको भी उस नशीली क़व्वाली से रूबरू कराने आ गया हूँ।

यूँ तो हमारे यूनुस भाई कुछ दिनों पहले क़व्वाली पर अपनी पोस्ट्स लेकर आये ही थे और उन्होने कहा भी था कि उन्हें क़व्वालियाँ ज्यादा पसंद नहीं हैं। मैं ज़रा उनसे dis-agree करता हूँ, मुझे क़व्वालियाँ पसंद हैं, क्यूँ? शायद क़व्वालों की आवाज़ , शायद उनकी धुन , या शायद और कुछ।

आज ये कव्वाली " झूम बराबर झूम शराबी..." मशहूर क़व्वाल अज़ीज़ नाज़ां की बेमिसाल आवाज़ का का एक खूबसूरत नमूना है । इसे १९७४ में आई फिल्म " फाइव राइफल्स" से लिया गया है . इसमें मयखाना, साकी, अंगूर की बेटी भी है, जवानी की रवानी भी है, जीने का सहारा भी है।

क्या कहा आपने? आप इस अंगूर की बेटी को दूर से ही सलाम करते हैं. कोई बात नहीं, जरा लफ्जों के मय को ही नजरों के जाम से पीकर तो देखिये.... महसूस कीजिए उस मयख्वार की विकल पुकार को....
"ना हरम में... ना सुकून मिलता है बुतखाने में,चैन मिलता है साकी तेरे मयखाने में॥"

ज़रा शायर की कलम को तो दाद दीजिये, देखिये क्या कहा है---
"आज अंगूर की बेटी से मुहब्बत कर ले,
शेख साहब की नसीहत से बगावत कर ले।
इसकी बेटी ने उठा रखी है सर पर दुनिया,
ये तो अच्छा हुआ अंगूर को बेटा न हुआ।"

पूरी क़व्वाली सुनने के लिए मैं आपको बेसब्र नहीं करूंगा. जी हाँ...
" मौसमे गुल में ही पीने का मजा आता है,
पीने वालों ही को जीने का मजा आता है।"

तो दस्तक देती बसंती बयार में मय के जाम नहीं तो लफ्जों के जाम ही पिए जाँये। और कही जाए...
झूम बराबर झूम शराबी, झूम बराबर झूम.......

Jhoom Barabar Jhoo...