Pages

Monday, January 21, 2008

झूम बराबर झूम.......



संगीतप्रेमी सुधी पाठको,
नमस्कार।

आज बहुत दिनों बाद मैं आपके सामने फिर से हाजिर हूँ अपने एक और पसंदीदा कलाकार की खूबसूरत रचना को लेकर। जैसा आपको शीर्षक देख कर ही आभास हो गया होगा आज मैं आपको झूम जाने का आग्रह करने वाला हूँ।

ये रचना ना तो कोई पॉप है ना ही रैप और ना ही ये कोई आइटम गीत है। फिर भी मेरा विश्वास है आप झूम जरूर जायेंगे।

जी हाँ, आज मैं आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ वो कव्वाली जिसने मुझे पहली बार अपने हाथ और पैर थिरकाने पर मजबूर कर दिया था। इस पहली बार कहने का मतलब ये है कि जब मैं पालनें में ही था।

मेरे पापा हमारे गाँव में होने वाले नाटकों में मुख्य किरदार और निर्देशक दोनों के किरदार अदा करते थे। एक उम्दा गायक और एक अच्छे चित्रकार के भी गुण उनमें थे, बल्कि कहें कि हैं। पर और गाँववालों की तरह उन्हें भी आगे बढ़ने का सुअवसर नहीं मिल पाया और घर गृहस्थी, एक छोटी सी नौकरी में ऐसे फंसे कि अपने सारे मंसूबों का क़त्ल कर उन्होने अपने बच्चों में अपने सारे गुणों को उतार देने की कोशिश की और बहुत हद तक कामयाब भी हुए। बहरहाल, इस वक़्त मैं क़व्वाली की बात कर रहा था कि किस तरह पालने में ही मैं इस क़व्वाली को सुनकर अपने हाथ पैर थिरकाने लगता था।

मम्मी बताती हैं कि जब मैं पेट में था, पापा अक्सर वो क़व्वाली गुनगुनाते रहते थे, और जब भी इसे वो मेरे पालने के पास आकर गाते मैं अपना हाथ पैर मानो इसकी धुन पर थिरकाने लगता था। शायद इस क़व्वाली से मेरा नाता इतना पुराना था इस लिए बाद के वर्षों में भी इसे सुनकर मुझे एक अजीब सी अनुभूति होती थी, ज्यादा सच होगा ये कहना कि अभी भी वो अनुभूति बरकरार है। तभी तो मैं आपको भी उस नशीली क़व्वाली से रूबरू कराने आ गया हूँ।

यूँ तो हमारे यूनुस भाई कुछ दिनों पहले क़व्वाली पर अपनी पोस्ट्स लेकर आये ही थे और उन्होने कहा भी था कि उन्हें क़व्वालियाँ ज्यादा पसंद नहीं हैं। मैं ज़रा उनसे dis-agree करता हूँ, मुझे क़व्वालियाँ पसंद हैं, क्यूँ? शायद क़व्वालों की आवाज़ , शायद उनकी धुन , या शायद और कुछ।

आज ये कव्वाली " झूम बराबर झूम शराबी..." मशहूर क़व्वाल अज़ीज़ नाज़ां की बेमिसाल आवाज़ का का एक खूबसूरत नमूना है । इसे १९७४ में आई फिल्म " फाइव राइफल्स" से लिया गया है . इसमें मयखाना, साकी, अंगूर की बेटी भी है, जवानी की रवानी भी है, जीने का सहारा भी है।

क्या कहा आपने? आप इस अंगूर की बेटी को दूर से ही सलाम करते हैं. कोई बात नहीं, जरा लफ्जों के मय को ही नजरों के जाम से पीकर तो देखिये.... महसूस कीजिए उस मयख्वार की विकल पुकार को....
"ना हरम में... ना सुकून मिलता है बुतखाने में,चैन मिलता है साकी तेरे मयखाने में॥"

ज़रा शायर की कलम को तो दाद दीजिये, देखिये क्या कहा है---
"आज अंगूर की बेटी से मुहब्बत कर ले,
शेख साहब की नसीहत से बगावत कर ले।
इसकी बेटी ने उठा रखी है सर पर दुनिया,
ये तो अच्छा हुआ अंगूर को बेटा न हुआ।"

पूरी क़व्वाली सुनने के लिए मैं आपको बेसब्र नहीं करूंगा. जी हाँ...
" मौसमे गुल में ही पीने का मजा आता है,
पीने वालों ही को जीने का मजा आता है।"

तो दस्तक देती बसंती बयार में मय के जाम नहीं तो लफ्जों के जाम ही पिए जाँये। और कही जाए...
झूम बराबर झूम शराबी, झूम बराबर झूम.......

Jhoom Barabar Jhoo...

2 comments:

Sanjeet Tripathi said...

अल्टीमेट कव्वाली है जी यह तो ……
झूम बराबर झूम शराबी झूम बराबर झूम………

एक यह और एक
चढ़ता सूरज………
इन दोनो के मुकाबले और कोई नही हो सकता

Neeraj Rohilla said...

बेहतरीन पोस्ट,
मैने भी कव्वाली पर दो प्रविष्टियाँ लिखी थी, आप एक बार जरूर देखें और अपनी प्रति्क्रिया दें,
http://antardhwani.blogspot.com/2007/08/blog-post_20.html

और,
http://antardhwani.blogspot.com/2007/08/blog-post_25.html