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Wednesday, May 07, 2008

विवशता

                                      weak

कमजोर,
कातर नेत्रों से ताकती हुई.
गिन रही थी,
दो चार पल
जिंदगी के.
गुन रही थी,
हुई क्या उससे ख़ता.
बूचड़खाने
कटने खड़ी थी.
क्या थी उसकी विवशता?

( 5th Feb. 1994)

12 comments:

शोभा said...

बहुत ही मार्मिक पंक्तियाँ।

Anonymous said...

शोभा जी ने सही कहा बहुत मार्मिक पंक्तिया है

Anita kumar said...

उसकी खता यही थी कि वो इंसानी दानवों के हथ्थे चढ़ी थी। इसी लिए हम शाकाहारी हैं

Udan Tashtari said...

वाकई मार्मिक.

Harshad Jangla said...

Heart touching

-Harshad Jangla
Atlanta, USA
May 7, 2008

Udan Tashtari said...

आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.

एक नया हिन्दी चिट्ठा भी शुरु करवायें तो मुझ पर और अनेकों पर आपका अहसान कहलायेगा.

इन्तजार करता हूँ कि कौन सा शुरु करवाया. उसे एग्रीगेटर पर लाना मेरी जिम्मेदारी मान लें यदि वह सामाजिक एवं एग्रीगेटर के मापदण्ड पर खरा उतरता है.

यह वाली टिप्पणी भी एक अभियान है. इस टिप्पणी को आगे बढ़ा कर इस अभियान में शामिल हों. शुभकामनाऐं.

सागर नाहर said...

अनिताजी ने बिल्कुल सही कहा, वो इन्सानी दानवों के हत्थे ही तो चढ़ी थी।

पारुल "पुखराज" said...

ये नज़ारा देखकर ही हम शाकाहारी हो गये---

डॉ .अनुराग said...

सचमुच आपकी सम्वेंद्नाये ओर भाव दोनों मार्मिक है...

Abhishek Ojha said...

दिल को छू लिया आपकी इन लाइनों ने...

अपनी डायरी के पृष्ठ कुछ तेजी से बदलिए ...

mamta said...

एक-एक शब्द ने बिल्कुल दिल को भीतर तक छू लिया।

Harshad Jangla said...

Ajit saab

Since a month you have not given us anything. I visit yr blog daily and get a Nirasha.

-Harshad Jangla
Atlanta, USA