शायद वो सर्दियों की ही एक सुहानी सुबह थी....
पड़ा था मैं भी नाजुक से पत्तों पे ओस कि एक बूँद की मानिंद...
वहीं बगल में ,
सुन रहा था शेर की सारी बातें॥
और पास में वो पोल खोलक यन्त्र का नया version भी तो था.....
तभी सूं-सूं की आवाज़ मैंने महसूस की।
शेर की गुर्राहट ? पर शेर तो खामोश था ...
प्यार मेमने से जता रहा था।
शायद मुँह में आते लार को,
अन्दर ही गटक जा रहा था....
मैंने सुना, " बेटा, जिंदा रह, जब तक चुनाव होते हैं,
खुश रह, जबतक चुनाव होते हैं ,
क्योंकि तुम्हें ही तो निरावरण हो जाना है,
हमारे दरबारियों के सामने ,
सदेह नहीं वरन...
टुकड़ों में,
प्लेटों मे सज जाना है.....
Sunday, October 07, 2007
चुनावों के बाद ...
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1 comment:
बहुत अच्छा प्रयास है भाई, स्वागत है ।
'आरंभ' छत्तीसगढ का स्पंदन
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